पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९२४

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चिंतामणिप्राप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१८०५) पावत भया, इंद्रिय अरु मनकी वृत्ति जो है, सो आत्मपदविषे उपशम भई, तिसते उपरांत जानकार भी कमलनयन रामजी लीलाके निमित्त प्रश्न करत भया । राम उवाच ॥ हे संशयरूपी मेघके नाशकर्ता शरकाल। मुझको एक संशय कोमल जैसा भया तिसको दूर करहु ॥ हे मुनीश्वर ! आत्मपद अव्यक्त है, अरु अचिंत्य है, अर्थ यह कि,इंद्रिय अरु मनका विषय नहीं, इंद्रियोंकार ग्रहण नहीं होता, अरु मनकी चितवनाविषे भी नहीं आता, जोबडे महापुरुष हैं, तिनके कहनेविषे भी नहीं आता, ऐसा जो अचेत चिन्मात्र आत्मतत्त्व है, सोशास्त्रकार कैसे जाना जाता है, शास्त्र तौ अविच्छेद प्रतियोगीकार कहते हैं, सो सविकल्प हैं, सविकल्पकारकै निर्विकल्पपद कैसे जाना जाता है, गुरु अरु शास्त्रकारकै जानिये, अरु विकल्परूप जो शास्त्र, तिनविषे भी सार अर्थ पायाजाता है, परंतु विकल्प परिच्छेद प्रतियोगी जो तिससाथ हैं, तिनकारकै सर्वात्मा क्योंकरि जानिये । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी! गुरु अरु शास्त्रकार नहीं जानाजाता, अरु गुरु शास्त्रविना भी नहीं जानाजाता ।। हे रामजी ! नानाप्रकार जो विकल्परूप शास्त्र हैं, तिनकारकै निर्विकल्परूप कैसे जानजाता है, परंतु जिसप्रकार इनकरि जाना है, सो भी सुन ।। हे रामजी । एक व्यवधान देशके कीटक थे, सो गृहस्थविषे रहते थे, तिनको आपदा आनि प्राप्त हुई; वह चिंताकार दुर्बल होते जावें, अरु भोजन भी न जुड़ जावै, जैसे वसंतऋतुकी मंजरी ज्येष्ठ आषाढके धूपकार सूख जाती है, जैसे कमल जलते निकसा सूखजाता है, तैसे संपदारूपी जलते निकसकार कीटक आपदारूपी धूपकार सुख गये, तब उनने विचार किया कि, किसीप्रकार हमारी उदरपूर्तता चलै ताते हम वनविषे जायकार लकडी चुन लेवें, जो हमारा कष्ट दूर होवे ।। हे रामजी । ऐसे विचार करके वह वनविषे गये वनविषे जायकरि लकडियां ले आये इसीप्रकार लकडियाँ वाले आवें जब एक वनते अपर वनविषे देखें, तब वहाते ले आवै, बजारविषे वेचिकार उदरपूर्ति करें, जब केतक काल व्यतीत भया, तब कोङ चंदनकी लकडीको पिछाने सो उनते विशेष मोल पावै, एकको ढूढते ढूंढते रत्न प्राप्त भये तिनको