पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९२६

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गुरुशास्रोपमावर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१८०७) जिनको प्राप्त भया, तिसकरि अवर दुःख भी निवृत्त भये, अरु विशेष सुखको पावते भये सो जब अपने इष्ट देवको सेवता है, तब स्वर्गादिक विशेष सुखको पावता है, अपने स्थानको प्राप्त होता है, वहुर शास्त्ररूपी वनको ढूँढता है, तब विचाररूपी रत्नविशेष सुखको पावता है, जब सत् असत्का विचार इसको प्राप्त होता है, तब सर्व दुःख इसके नष्ट हो जाते हैं, अरु यह जो सुख प्राप्त होता है, सो शास्त्रकार होता है। क्यों है जैसे अवर पदार्थ चंदन लकडियां वनविध प्रगट थे चितामणि गुप्त थी,तैसे अपर शास्त्रविषे धर्म अर्थ काम प्रगट हैं, अरु ज्ञानरूपी चितामणि गुप्त है,जब शास्त्ररूपी वन पृथ्वीको वैराग्य अरु अभ्यासरूपी यत्रकारि खोजे, तब आत्मरूपरी चिंतामणिको पाता है । हे रामजी ! वनविषे उन चिंतामणि तत्व पाई क्यौं, जो उहाँ चिंतामणिका वन था, परंतु जब अभ्यास किया तब पाई, परंतु उसी वनविषे पाई; तैसे गुरु शास्त्र भी माटीके खोदनेवव हैं, जब भला अभ्यास करता है, तब आपही चिंतामणिवत् आत्मप्रकाश आता है, जैसे माटीके खोदनेकरि चिंतामणिका प्रकाश उपजता नहीं, काहेते जो चिंतामणि आगेही प्रकाशरूप है, खोदनेकार आबरण दूर किया, तब आपही भासि आया, तैसे गुरु शास्त्रके वचन तिनके अभ्यासकार अंतःकरण शुद्ध होता है, त आत्मसत्ता स्वतः प्रकाशि आती है, सो गुरु अरु शास्त्र हृदयकी अलिलता दूर करते हैं, जब मलिनता दूर होती है, तब आत्मसत्ता स्वाभाविक प्रकाशती हैं, ताते गुरु शास्त्रकरि मलिनता दूर होती हैं, परंतु इनकी कल्पना भी द्वैतविषे होती है, सो कल्पना द्वैत संसारको नाश करने वाली है, परमार्थकी अपेक्षा कारके शास्त्र गुरु भी द्वैत कपना है, अरु अज्ञानीकी अपेक्षाकरि गुरु शास्त्र कृतार्थ करते हैं, इनके अभ्यासकार आत्मपद पाता है, प्रथम अज्ञानी शाख्नको भोगके निमित्त सेवते हैं,अरु शास्त्रविचे भोगका अर्थ जानते हैं, जैसे लकडियोंके निमित्त इनको सेवते थे, अरु शाखविषे सब कछु है, जैसे किसीको रुचिकारे अभ्यास होता है, तैसे पदार्थ तिसको प्राप्त होता है, शास्त्र एकही है, परंतु पदार्थविषे भेद है, जैसे गन्नेकी रस एक है, तिसते गुड शक्कर खंड