पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९२७

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( १८०८) योगवासिष्ठ । मिश्री होती हैं, तिनविषे भेद है, तैसे शास्त्र एक है, तिनविषे पदार्थ भिन्न भिन्न हैं, जिस जिस अर्थ पावनेके निमित्त यह यत्न करेगा, तिसीको पावैगा, शास्त्रविष भोग भी है, अरु मोक्ष भी है, अज्ञानी भोगके निमित्त यह यत्न करते हैं, परंतु वह भी धन्य हैं, काहेते जी शास्त्रको सेवने तो लगे हैं क्यों ? सेवते सेवते कबहूँ किसी कालविषे आत्मपदरूपी चिंतामणि भी प्राप्त होवैगी परंतु आत्मपद पावनेनिमित्त शास्त्र श्रवण करना योग्य है, सुनि सुनिकोरे अभ्यासद्वारा आत्मपद प्राप्त होवैगा, तब सर्व ओरते समभाव होवैगा, जैसे सूर्यके उदय हुये सर्व ओरते प्रकाश पसार जाता है, तैसे सर्व ओर समता प्रकाशैगी, तब सुषुप्तिकी नई स्थिति होवैगी, अर्थ यह जो द्वैत अरु एक कलना भी शांत होजावेगी, अनुभव अद्वैतविषे जाग्रत होवैगी, परंतु किसकार होवैगी, संतके संग अरु शास्त्रके विचार अभ्यासद्वारा होवैगी, सो संतजन कवने हैं, जो परोपकारी संसारसमुद्रते पार करनेवाले होवें, सो संतजन हैं, तिनके संगकार आत्मपद प्राप्त होवैगा ।। हे रामजी ! गुरु शास्त्र नेति नेतिकार जतावते हैं, अर्थ यह जो अनात्मधर्मको निषेधकार आत्मतत्त्व शेष रखते हैं, जब अनात्मधर्मको त्याग करेगा, तब आत्मतत्त्व शेष रहैगा, तिसको जानि लेवैगा,तिसके जानेते अवर कछु जानना नहीं रहता, तिसके जाननेविषे यन भी कछु नहीं,आवरण दूर करनेनिमित्त यत्न है, जैसे सूर्य आगे बादल आता है, तिसकार सूर्य नहीं भासता, सो बादलोंके दूर करनेको यत्न चाहता है, सूर्यको प्रकाशनिमित्त यत्न नहीं चाहता, जब बादल दूर हुये, तब स्वाभाविकही सूर्य प्रकाशता है, तैसे गुरु शास्त्रके यत्न कर अहंकाररूपी आवरण दूर होते हैं, तब आत्मा स्वप्रकाश भासि आता है, सात्विक गुण जो हैं, गुरु अरु शास्त्र, तिनकार रज तम गुणका अभाव होता है, तब परम अनुभव ज्योतिकार आत्मा अकस्मात प्रकाशि आता है, जब प्रकाश भया, तब उसविषे उन्मत्त हो जाता है, द्वैतरूपी संसारकी कल्पना नहीं रहती जैसे सुंदर स्त्रीको देखिकार कामी पुरुष उन्मत्त हो जाता है, अरु संसारकी औरते सुरति भूलि जाती है, तैसे ज्ञानी आत्मपदको पायकार उन्मत्त होता है, अरु संसारकी औरते