पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९२८

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विश्रामप्रकटीकरणवर्णन-निर्वाणकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१८०९) सुरति भूलिजाते हैं, परमऐश्वर्यवान् होता है, सो तिसका साधन शास्त्रका विचार है, वनके सेवनेते चिंतामणि पावनेका दृष्टांत कहा है सो जानि लेना इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे गुरुशास्त्रोपमावर्णने,नाम द्विशताधि काष्टसप्ततितमः सर्गः ॥ २७८ ॥ द्विशताधिककोनाशीतितमः सर्गः २७९, विश्रामप्रकटीकरणम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जो कछु सिद्धांत संपूर्ण है, सो मैं तुझको विस्तारकरिके कहा है, तिसके श्रवणकार अरु वारंवार विचारनेकरि मूढ भी निराकरण होवेंगे, तो उत्तम पुरुषको निरावरण होनेविषे क्या आश्चर्य है। हे रामजी। यह मैं भी जानता हौं, जो तू विदितवेदभयाहै, प्रथम उत्पत्ति प्रकरण तेरे ताई कहा है, जो जगत्की उत्पत्ति इसप्रकार हुई है, बहुरि स्थितिप्रकरण कहा है, जो जगत्की स्थिति इसप्रकार हुई है, उत्पत्ति कहिये जो चित्त संवेदनके ऊरणेकरि जगत् उपजा है, अरुसंवेदन ऊरणेकी दृढताकार जगत् स्थित भया है, तिसते उपरांत उपशमप्रकरण कहा है, जो मन इसप्रकार अफ़र होता है, जब चित्त उपशम भया, तब परम कल्याण हुआ, मनके ऊरणेका नाम संसार है, जब मन उपशम हो जाता है, तब संसारकल्पना मिटि जाती है, यह संपूर्ण विस्तारकरिकै कहा है, परंतु अब जानता हैं, जो तू बोधवान् भया है ॥ है रामजी । मैं तुझको आत्मज्ञानका उपाय कहा है, अरु जिनको ज्ञान प्राप्त भया, तिनके लक्षण भी कहे हैं, सो अव भी संक्षेपते कहता हौं ॥ है रामजी । प्रथम चालक अवस्थाविषे इसको यह वनता है, जो संतजनका संग करना; अरु सच्छास्त्रका विचारना, इस शुभ आचारकरि अभ्यासद्वारा इसको आत्मपदकी प्राप्ति होती है, तव समता आनि प्राप्त होती है, अरु सर्वसाथ सुहृद हो जाता है, सो माता सुहृदुता कैसी है, परमानंदरूप जो है मुदिता, तिसकी जननी है, सो सदा इसके संग रहती है, जैसे सुंदर पुरुषको देखिकर तिसकी स्त्री प्रसन्न ११४