पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९३०

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विश्रामप्रकटीकरणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्ध ६. (१८११) लोक नहीं करते, काहेते कि, जानते हैं,यह समदर्शी है, समताकरिके वह सर्वका सुहृद होता है, शत्रु भी उनके मित्र हो जाते हैं, जिनके समताभाव उदय हुआ है, तिनको अग्नि जलाय नहीं सकता, अरु जल डुबाई नहीं सकता, वायु तिसको सुखाय नहीं सकता, अरु जैसी इच्छा करें तैसी सिद्ध होती है ॥ हे रामजी । जिसको समता प्राप्त हुई है, सो पुरुष अतोल हो जाता है, संसारकी उपमा उसको कोऊ दे नहीं सकता, अरु जिसको समता नहीं प्राप्त भई, सो सबै संग सुहृदताका अभ्यास करे, तव जो उसको शत्रु हवै सो भी मित्र हो जाता है, काहेते जो अभ्यास की दृढताकरिके इसको शत्रु भी मित्र भासने लगते हैं, जो सर्वविजे समताका अभ्यास करता है, सोई हृढ होता है, तव समताभाव कदाचित् चलायमान नहीं होता ।। हेरामजी! एक राजा था, तिसने अपने शरीर का माँस काटि सुधार्थीको दिया, परंतु समताते चलायमान न भयो, ज्या त्यों रहा, अरु एक पुरुषको पुत्री अति प्यारी थी, तिसने किसी दोनौं, सो तिसने अपर शत्रुको दीनी, परंतु वह ज्या त्या रहा, एक अपर राजा था, उसको स्त्री अति प्यारी थी, उसका कछु व्यभिचार श्रवण किया, तिसको मार डारी, परंतु समतारू, धर्मको न त्यागत भया । हे रामजी ! जव राजाके गृहविषे मंगल होता है, तब अप३ नगरी भूषणे अरु वस्त्रकार सुंदर करता है, अरु प्रसन्न होता है, ले। अवस्था राजा जलककी देखी थी, अरु एक सय सर्व स्थान व सुंदर अधिकारि जलते देखे, तौ अपने समताभावते चलायमान न भयो, अरु एक अर राजा था, उसने राज्य भी अपरको देदिया, अप राज्यविना विवरता भया परंतु समताभावते चलायमान न भया ।। हे रमजः । ॐ दैत्य था, उसको देवताका राज्य प्राप्त भयो, वहुर राज्य नष्ट हो गया, परंतु दोनों भावविषे समही रहा, एक वालक था, उसने चंद्रमाको मोदक लड्डू जानेकरि फुक मारी, परंतु वह ज्योंका त्यों रहा ॥ हे जी ! इत्यादिक में अनेक देखे हैं, जिनको आत्मज्ञान सम्यक् प्राप्त *ा है, सो सुखदुःखकार चलायमान नहीं भये । हे रामजी ! प्रारब्ध ज्ञानीको भोगणीको भोगणी तुल्य है, फ्रेतु रागदोषकर अज्ञान तपमान