पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९३१

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(१८१२) योगवासिष्ठ । होता है, अरु दृढ समझके वशते ज्ञानी तपायमान नहीं होता है, सर्वे अंवस्थाविषे उसको समताभाव होता है, सो आत्मपदके साक्षात्कार समताभाव होता है, सो आत्मपद तपकरिके भी नहीं प्राप्त होता, न तीर्थोकर, न नकार, न यज्ञकरि प्राप्त होता है, जब अपना विचार उत्पन्न होता है, तब सर्वं भ्राति निवृत्त होजातीहै, अरु सर्व जगत् आत्मरूपही भासता है, इसी दृष्टिको लिये प्राकृत आचारविषे विचरते हैं, परंतु निश्चयते सदा निर्गुण हैं ॥ राम उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! ऐसी अद्वैतदृष्टि निष्ठा जिनको प्राप्त भई है, तिनको कर्मोंके करनेसाथ क्या प्रयोजन है, वह त्याग क्यों नहीं करते है । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी जो पुरुष अद्वैतनिष्ठ हैं, तिनको त्यागग्रहणकी भ्रांति चलती जाती है, तिस भ्रमते रहिह होकार प्रारब्धके अनुसार चेष्टा करते हैं । हे रामजी । जो कछु स्वाभाविक क्रिया उनकी बनी पडी है, तिसका त्याग नहीं करते, तिसविषे उनको ज्ञान प्राप्त भया है, सो आचार करते हैं, अपरको ग्रहण नहीं करते, अरु उसका त्याग नहीं करते ॥ हे रामजी ! जिनको गृहस्थहीविषे ज्ञान प्राप्त भया है, सो गृहस्थहीविषे विचरते हैं, त्याग नहीं करते, जैसे हम स्थित हैं, अरु जिनको राज्यविषे ज्ञान प्राप्त भया है, सो राज्यहीविषे रहे हैं, जैसे तुम हौ, जो ब्राह्मणको ज्ञान प्राप्त भया है, सो ब्राह्मणहीके कमविषे रहे हैं। इसी प्रकार क्षत्रिय वैश्य शूद्र जिस स्थानविषे किसीको ज्ञान प्राप्त भया है, सोई कर्म करता है । हे रामजी । कई ज्ञानवान् गृहस्थहीविषे रहे हैं, कई राज्यही करते हैं, कई संन्यासी हो रहे हैं, कई वनाविषे विचरते फिरते हैं, कई पर्वतकंदराविषे ध्यानस्थित हो रहे हैं, कई नगरविषे रहते हैं, कई ज्ञानवान् मथुराविषे, कई केदारनाथविषे कई प्रयागविषे, कई जगन्नाथविषे रहते हैं, कई देवताका पूजन करते हैं। कंर्म करते हैं, कई तीर्थ अग्निहोत्र करते हैं, हमारी नाई कई जप करते हैं, कई अस्ताचल पर्वतमें कई उदयाचल पर्वतमें, कई मंदराचल हिमालय पर्वतविषे इत्यादिक स्थानमें विचरते हैं कई शास्त्रविहित कर्म करते हैं, कई अवधूत हो रहे हैं, कई भिक्षा मांग माँग भोजन करते हैं, कई कठिन वचन बोलते हैं, कई अज्ञानी हुये विचरते हैं, कई विद्याध्ययन करते हैं, इत्या