पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९३२

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विश्रामप्रकटीकरणवर्णन-निवणिपकरण, उत्तराई ६. (१८१३) दिक नानाप्रकारकी चेष्टा ज्ञानवान्भी करते हैं,काहेते किं उनको स्वाभाविक अनि प्राप्त भई है, यत्रकार कछु नहीं करते ॥ हे रामजी ! शुभ कर्म करे अथवा अशुभ कर्म करे, कोऊ क्रिया उनको वैधन नहीं करती, अरु जो अज्ञानी हैं, सो जैसे कर्म करेंगे, तैसेही फलको भेगैंगे, पुण्य कर्म करैगा, तव स्वर्गसुख भोगैगा, पापकर नरकदुःख भोगैगा, अरु जो शुभ कर्म कामनाते रहित करेगा, तव अंतःकरण शुद्ध होवैगा, संतके सँग अरु सच्छास्त्रकरि शुद्धताको प्राप्त होवैगा । हे रामजी ! जो अर्धप्रबुद्ध है, अरु पाप करने लग जावै, अरु आत्मअभ्यास त्याग देवै सो दोनों सागैते भ्रष्ट है, स्वर्गको नहीं प्राप्त होता अनात्मपदको प्राप्त होता है, अरु तप दान तीर्थादिक सेवनेकार भी आत्मपद प्राप्त नहीं होता, जव विचार उपजता है, अरु आत्मपदका अभ्यास करता है, तब आत्मपदं पाता है। जव आत्मपद प्राप्त भया, तब निःशंक हो जाता है, चेष्टा व्यवहार करता भी दृष्ट आता है, परंतु अंतरते उसका चित्त शांत हो जाता है, जैसे लोहेका तष्ट होवे, जव उसको पारसका स्पर्श करिये तव वह स्वर्ण हो जाता है, सो आकार उसका तष्टही रहता है, परंतु लोहा भावका अभाव हो जाता है, तैसे जव चित्तको आत्मपद्का स्पर्श होता है, तब चित्त शांत हो जाता है, परंतु चेष्टा उसीप्रकार होती है, अरु जगत्की सत्यता नष्ट हो जाती है । हे रामजी ! अब तुम जागे हौ अरु निःशंक भये हौ, रागद्वेषरूपी तुम्हारा दोष नष्ट हो गया है, अरु तुम निर्विकारे आत्मपदको प्राप्त भये हौ, जन्म मृत्यु बढना घटना युवा वृद्ध होना इन सर्व विकारोंते रहित आत्मपदको तुम पाये हौ, सर्वका अधिष्ठान जो परम शुद्ध चेतन है, सो तुमको प्राप्त भया है ॥ हे रामजी ! जो कछु मुझे कहना था, सो कहा है, अरु सारका सार आत्मपद कहा है, अरु जो कछु जानने योग्य था, सो तुमने जाना है, इसके उपरांत न कछु कहना रहा है, न कछु जानना रहा है, एतेपर्यंत कहना अरु जानना है, अव तुम निःशंक होकर विचरौ, तुमको संशय को नहीं रहा, क्षय अरु अतिशयरहिन पद तुम पाये हौ, अर्थ यह कि अविनाशी अरु सर्वते उत्तम पदको पाये हौ । वाल्मीकिरुवाच ॥ हे साधो ! जब इसप्रकार