पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९३४

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विश्रामप्रकटीकरणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१८१५) अरु आकाशलोक देवताविषे भी कोऊ नहीं, जो तुम्हारी पूजाको योग्य होवे, सर्व पदार्थ कल्पित हैं, अरु जो सत् पदार्थसाथ पूजा करें, तौ सत् तुमहीते पाया है, ताते ऐसा पदार्थ कोऊ नहीं, जो तुम्हारी पूजायोग्य होवै, तथापि अपनी अपनी शक्त्यनुसार पूजन करते हैं, परंतु तुम क्रोधवान् नहीं होना, अरु हाँसी भी नहीं करनी ॥ हे सुनीश्वर । मैं राजा दशरथ अरु संपूर्ण मेरे अंतःपुरकी स्त्रियां अरु चतुष्टय पुत्र राज्य संपूर्ण पूजासहित, अरु जो कछु लोकविषे यश किया, अरु जो कछु परलोकके निमित्त पुण्य किये हैं, सो सर्वं तुम्हारे चरणोंके आगे निवेदन हैं ॥ हे साधो ! इसप्रकार कहिकरि राजा दशरथ वसिष्ठजीके चरणोंपरि गिरा, तब वसिष्ठजी वोले ॥ हे राजन् ! तू धन्य हैं, जिनकी ऐसी श्रद्धा है, परंतु हम तो ब्राह्मण हैं, हमारे राज्य क्या करना है, अरु राज्यका व्यवहार क्या जानें, अरु कबहूँ ब्राह्मणने राज्य किया है, राजा क्षत्रिय होते हैं, ताते तुझहीसों राज्य होवैगा, अरु यह जो तेरा शरीर है, सो मैं अपनाही जानता हैं, अरु यह चतुष्टय पुत्र तेरे मैं आगेते अपने जानता हौं, हम तो तेरे परिणामकारकैही तुष्ट हौं, यह राज्यका प्रसाद हमने तुझकोही दिया है । वाल्मीकिरुवाच ।। जव इसप्रकार वसिष्ठजीने कहा, तब राजा दशरथ वडार कहत भया कि हे स्वामी ! तुम्हारे लायक कोऊ पदार्थ नहीं, तुम ब्रह्मांडाँके ईश्वर हौ, ऐसे वचन तुमप्रति कहनेविषे भी हमको लजा आती है, परंतु योगके निमित्त तुम्हारे आगे विनती करी है, जो मोक्ष उपाय शास्त्र श्रवण किया है, अपनी शक्तिके अनुसार पूजन करें, तव वासिष्ठजीने कहा वैठो, तव राजा वैठि गया, वहुरि रामजी निरभिमान होकर कहत भये । हे संशयरूपी तिमिरके नाशक सूर्यं । तुम्हारा पूजन हम किससाथ करें, जो पदार्थ गृहविषे अपना होवे, सो हे गुरुजी । मेरे पास अपर तौ कछु नहीं एक नमस्कारही है, ऐसे कहि चरणोंपर गिरा नेत्रोंते जल चला जावे, वारंवार उठे वहुरि आत्मानंदप्राप्तिके उत्साह करिकै वरणपर गिर पड़े, जव वसिष्ठजीने कहा वैठे जावडु, वह रामजी वैठि गये, वहुरि लक्ष्मण भरत क्षत्रुघ्र अध्यंपाद्यकार पूजने लगे, राजर्षि ब्रह्मर्हि