पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९३५

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(१८१६) योगवासिष्ठ । सर्व पूजने लगे, फूलॉकी वर्षा बडी चढि गई, वसिष्ठजीका शरीर भी ढाँका गया, जब वसिष्ठजीने भुजासाथ फूल दूर किये, तब मुख दृष्ट आने लगा, जैसे बादलोंके दूर भये चंद्रमा दृष्ट आता है, तैसे मुख भासा तव - वसिष्ठजीने कहा॥ हे ऋषीश्वरो । व्यास वामदेव विश्वामित्र नारद भृगुअत्रि इत्यादिकते लेकर जो बैठे थे, तिनप्रति कहा ॥ हे साधो ! जो कछु मैंने सिंद्धांतके वचन कहे हैं इनते घट अथवा बढ होवै सो तुम अब कहो, जैसा जसा स्वर्ण होता है, तैसा तैसा अग्नि बीच दिखाई देता है, जैसे तुम कहो, तब सबने कहा ॥ हे मुनीश्वर ! यह तुम परम सार वचन कहे हैं, जो जो तुम्हारे वचनोंको घट बढ जानिकार तिनकी निंदा करेगा, सो महापतित होवैगा यह वचन परमपद पानेका कारण है। हे मुनीश्वर ! हमारे अंतर भी जो कछु जन्मजन्मांतरका मल था, सो नष्ट भयो है, हम तो पूर्ण ज्ञानवान् थे, परंतु पूर्व जन्म जो धारे हैं, तिनकी स्मृति हमारे चित्तविष थी, जो अमुक जन्म हम इसप्रकार पाया था, अरु अमुक जन्म इसप्रकार पाया था, सो सव स्मृति अव नष्ट भई है, जैसे स्वर्ण अग्निविषे डारा शुद्ध होता है, तैसे तुम्हारे वचनोंकार स्मृतिरूप मल हमारा नष्ट भया है, अब हम जान गये हैं, कि न कोऊ हमारे जन्म था, न हम कोङ जन्म पाया है हम अपनही आपविषे स्थित हैं ॥ हे मुनीश्वर ! तुम कैसे हो जो संपूर्ण विश्वके गुरु हौ, अरु ज्ञानअवतार हौ ऐसे तुमको हमारा नमस्कार है, राजा दशरथ भी धन्य है, जिसके संयोगकार हम मेाक्षउपाय श्रवण किया है, अरु यह रामजी विष्णु भगवान हैं । वाल्मीकि उवाच ॥ इसीप्रकार ऋषीश्वर मुनीश्वर वसिष्ठजीको परम गुरु जानिकरि स्तुति करने लगे, अरु रामजीको विष्णु भगवान् जानिकार स्तुति करने लगे, अरु राजा दशरथकी स्तुति करत भये, जिसके गृहविषे विष्णु भगवान्ने अवतार लिया है स्तुति कारकै वसिष्ठजीको अध्यंपाकार पूजने लगे, बहुरि आकाशके सिद्ध बोले ॥ हे वसिष्ठजी ! तुमको हमारा नमस्कार है, तुम गुरुके भी गुरु हौ । प्रभो ! जो कछु तुमने उपदेश किया है, अरु जो कछु तिसविषे युक्तियां कही हैं, ऐसे वचनं वागीश्वरी जो है सरस्वती, सो भी कहे, अथवा न