पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९३६

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विश्रामप्रकटीकरणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१८१७) कहै, तुमको वारंवार नमस्कार है, अरु राजा दशरथ चतुर द्वीपका राजा तिसको भी नमस्कार है, जिसके प्रसंगकार हम ज्ञान अरु युक्तियां श्रवण किया हैं, अरु यह रामजी विष्णु भगवान् नारायण हैं, चारों आत्मा है, इनको हमारा प्रणाम है, यह जो चारों भाई हैं, सो ईश्वर देवता हैं, विष्णु भगवान् जाके ऊपर कृपा करता है, राजकुमार जीवन्मुक्त अवस्थाको धारि कार वैठे हैं। अरु वसिष्ठजी परम गुरु हैं अरु विश्वामित्र तपकी मूर्ति है। वाल्मीकि उवाच ॥ इसप्रकार जब सिद्ध कह रहे तव फूलकी वर्षा करने लगे, जैसे हिमालय पर्वतपर वर्फकी वर्षा होती है, अरु वफेरि पूर्ण हो जाता है, तैसे वासिष्ठजी पुष्पकार पूर्ण भये, आकाशचारी जो ब्रह्मलोकविषे वासी थे, तिनने भी पुष्पकी वर्षा करी, अपर जो समाविषे वैठे थे, तिनने भी पूजन किया अरु अपर जो सभावि, ब्रह्मर्षि वैठे थे तिनका भी यथायोग्य पूजन किया, इसप्रकार जव सिद्ध पूजन कर चुके, तब कई ध्याननिष्ठ हो रहे, सबके चित्त शरत्कालके आकाशवत् निर्मल हो गये, अपने स्वभावविषे स्थित भये, जैसे स्वप्नकी सृष्टिका कौतुक देखिकार कोऊ जागि उटै, अरु हँसै, तैसे वह हँसने लगे, तव वसिष्ठजी रामजीको कहत भये ॥ हे रघुवंशकुलरूपी आकाशके चंद्रमा ! तू अव किस दशाविषे स्थित हौ, अरु क्या जानते हौ ॥ राम उवाच । हे भगवन् ! सर्व धर्म ज्ञानके समुद्र । तुम्हारी कृपाते मैं अब अपने आपविषे स्थित हौं,अरु कोऊ कल्पना नहीं रही, परम शांतिमान भया हौं, मुझको शेष विशेष को नहीं भासता, केवल अपना आपही पूर्ण भासता है, अब मुझको संशय कोऊ नहीं रही, अरु इच्छा भी कछु नहीं रही मैं परम निर्विकल्प पद पाया हौं, कोऊ कल्पना सुझको नहीं फुरती, जैसे नीलपीतादिक उपाधते रहित स्फटिक प्रकाशती है, तैसे मैं निरुपाधि स्थित हौं, संकल्प विकल्प उपाधिक अभाव हो गया है, परम शुद्धताको प्राप्त भया हौं, चित्त मेरा शांत हो गया है, चेष्टा मेरी पूर्ववत् होवैगी, अरु निश्चयविषे कछु न फुरैगा, जैसे शिलाविषे प्राण• नहीं फुरते, मुझको द्वैत कल्पना कछु नहीं फुरती ॥ हे मुनीश्वर ! अव मुझको सव आकाशरूप भासता है में शांत