पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९३७

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(१८१८) | योगवासिष्ठ । रूप होकार परम निर्वाण हौं, भिन्न भाव जगत् मुझको कछु नहीं भासता, सर्व अपना आपही भासता है, अब जो कछु तुम कहौ सोई करौं, अब मुझको शोक कोऊ नहीं रहा, जैसा राज्य करणा भोजन छादन बैठना चलना पान करना जैसे तुम कहहु तैसेही करौं, तुम्हारे प्रसादकारि मुझका सर्वे समान है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विश्रामप्रकटीकरण नाम द्विशताधिकैकोनाशीतितमः सर्गः ॥ २७९ ॥ । द्विशताधिकाशीतितमः सर्गः २८०. = - -- निर्वाणवर्णनम् । वाल्मीकि उवाच ॥ है भारद्वाज । जब ऐसे रामजीने कहा, तव वसिष्ठजी कहत भये । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! बडा कल्याण हुआ, जो अपने आपविषे स्थित भया, अब तुझने यथार्थ जाना है, अब जो कछु सुननेकी इच्छा है सो कहौ ॥ राम उवाच ॥ हे संशयरूपी अंधकारके नाशकत्ता सूर्य । अरु संशयरूपी वृक्ष के नाशक कुठार ! अव तुह्मारे प्रसाद करिके मैं परम विश्रांतिको प्राप्त भया हौं, अरु जागृत स्वप्न सुषुप्तिकी कलनाते रहित हौं, जागृत जगत् भी सुझको सुषुप्तिवत् भासता है, श्रवण करनेकी इच्छा भी नहीं रही, अब परम ध्यान मुझको प्राप्त भयो है, अर्थ यह जो आत्माते इतर कछु वस्तु नहीं भासती, मैं आत्मा हौं, अज अविनाशी हौं, शतिरूप हौं, अनंत हौं, सदा अपने आपविषे स्थित हैं, ऐसे मुझको मेरा नमस्कार है, प्रलयकालका पवन चलै, अरु समुद्र उछलै इत्यादिक्क अपर क्षोभ होवै, तो भी मेरा चित्त स्वरूपते चलायमान न होगा अरु जो त्रिलोकीका राज्य सुझको प्राप्त होवै, तौ मेरे चित्तविषे हर्ष न उपजैगा, मैं सत्तासमानविष स्थित हौं । वाल्मीकि उवाच ॥ हे भारद्वाज । जब इसप्रकार रामजीने कहा, तव मध्याह्नका सूर्य शिरके ऊपर उदय भया, राजा जो वैठे थे, रत्न मणिके भुषणकारि भूषित तिन मणिनकी कांति किरणकारि अति विशेष हुई, सूर्यसाथहीं एक हो गई, मानों ऐसे वचन सुनिकार नृत्य करती है, तब वसि