पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९४०

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चिदाकाशजगदेकताप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १८२१) जो अर्थ करिये, यह जल है, यह पृथ्वी है, यह अग्नि है, इनते आदि लेकार अनेक शब्द अरु अर्थ होते हैं, अर्थते रहित शब्द एकही है, तैसे यह सव चेतन है, चित्तकी कल्पनाकार भिन्न भिन्न पदार्थ भासते हैं, अपर वस्तु कछु नहीं, अपर भासता है, सो तिसीका आभास है ॥ हे रामजी । आभास भी अधिष्ठानसत्ता भासती हैं, परंतु ज्ञानविषे भेद होता है, सो ज्ञानविषे भी भेद नहीं, वृत्तिविषे भेद है, जिसविषे अर्थ भासते हैं, अरु ज्ञानरूप अनुभवसत्ता है, तिसविषे जैसे अर्थकी वृत्ति आभास होती है, तिसको जानता है, जैसे जेवरी एक पड़ी होती है,तिसविषे सर्पको अर्थ वृत्ति न ग्रहण करै तौ सर्प तौ कछु नहीं वह जेवरही है, तैसे अर्थ भेद ग्रहण कारये नहीं तौ ज्ञानही है, जेते कछु पदार्थ भासते हैं, सो सव ज्ञानरूपही हैं, अपर कछु वना नहीं ॥ हे रामजी! स्वप्नके दृष्टांत मैं तुझको जतावनेके निमित्त कहे हैं, वास्तवते स्वप्न भी कोऊनहीं अद्वैतसता अपने आपविषे स्थित है, जैसे समुद्र सदा जलरूप है, द्रुवताकारकै तरंग बुदे भासते हैं सो नानारूप नहीं, अरु नाना हो भासता है, तैसे सर्व जगत् अनानारूप है। अरु नाना हो भासता है, तू अपने स्वप्नकी स्मृतिको विचार देख, जो तेरा अनुभवही नानाप्रकार हो भासता है, परंतु कछु हुआ नहीं, तैसे यह जाग्रत् जगत् भी तेरा अपना आप है, अपर दूसरा कछु नहीं, सदा निराकार निर्विकार आकाशरूप आत्मसत्ता अपने आपविष स्थित है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जो अद्वैतसत्ता निराकार निर्विकार सदा अपने आप विष स्थित है, तौ पृथ्वी कहते उपजी है १ ॥ जल कैसे उपजा है ? अग्नि, वायु आकाश,पुण्य,पाप इत्यादिक कल्पना चिदाकाशविषे कैसे उपजे हैं । मेरे दृढ वोधके निमित्त कहहु ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी यह तू कहू कि, स्वप्नविषे जो पृथ्वी उपजी होती है, सो कहते उपजी है, अरु जल, वायु, अग्नि, आकाश, पाप, पुण्य कहते उपजे हैं, देश काल पदार्थ कहते उपजे हैं ? राम उवाच ।। मुनीश्वर ! स्वप्नविषे जो पृथ्वी -जल अग्नि वायु आकाश देश काल पदार्थ भासते हैं, सो सव आत्मरूप होते हैं, आत्मसत्ताही ज्यॉकी त्यों होती है, सो तत्त्ववेत्ताको ज्योंकी त्यों भासती है, अरु जो असम्थुकूदर्शी हैं, तिनको भिन्न भिन्न पदार्थ भासते अरु नाना नानाप्रकार हा अपर दूसरा क स्थत हैं। राम