पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९४१

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( १८३२) योगवासिछ । हैं, भासना तुमको तुल्य होता है, परंतु जिसकी वृत्ति यथाभुत अर्थको ग्रहण करती है, तिसको ज्योंकी त्यों आत्मसत्ता भासती है, अरु जिसकी वृत्ति यथाभूत अर्थको ग्रहण नहीं करती, तिसको वहीं वस्तु अपर रूप हो भासती है ॥ हे मुनीश्वर ! अपर जगत् कछु बना नहीं, वही आत्मसत्ता स्थित है, जब कठोररूपकी संवेदन फुरती है, तव पृथ्वी यहाड्रूप हो भासत हैं, अरु वताका स्पंद ऊरता है, तव जलरूप हो भास्ता है, अरु उष्णरूपकी संवेदन फुरती है, तव अग्नि भासती है, इसी प्रकार वायु आकाशादिक पदार्थ जैसे फुरणा होता है, तैसे हो भासता है। जैसे जल तरंगरूप हो भासता है, परंतु जलते इतर कछु नहीं, जलहीरूप है, तैसे आत्मसत्ता जगलुरूप हो भासती है, वहीरूप है, अपर जगत् कछु वस्तु नहीं, यह गुण क्रिया सच आकाशवर्षे हैं, वास्तव कछु नहीं काहेते जो कारणते रहित है, सव असत्रूप है, अहं त्वते आदिलेकर जेता कछु जगत् भासता है, सो सव आकाशरूप है, कछु बना नहीं, अपने आपविषे आत्मसत्ता स्थित है, न कोङ आधार है, अद्वैतसत्ता सदा अपने आपविषे स्थित है, अरु नानारूप हो भासती है, जव चित्तसंवेदन फुरती है, तब पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, पदार्थ, देश, काल हो भासता है, कहूं सर्व आत्माको ज्ञान फुरता है, कहूं परिच्छिन्नता सती है, परंतु वास्तवते कछु बना नहीं, वहीं वस्तु है, जैसा तिसविषे ऊरणा ऊरता है, तैसा हो भासता है, अनुभवसत्ता परम आकाशरूप है। जिलावर्ष आझाश भी अकाशरूप है॥इति श्रीयो०निवाँणप्र०चिदाकाशजगदेकताप्रतिपादनं नाम द्विशताधिकाशीतितमः सर्गः ॥ २८१ ॥ द्विशताधिकळ्यशीतितमः सर्गः १८२. जगदाभासवर्णनम् । राम उवाच । है भगवन् ! यह प्रश्न है, जो जागृत अरु स्वप्नविषे कछु भेद नदी, अरु परम आकाशरूप है, तो तिस सत्ताको जागृत अरु स्वमशरीरसाथ कैसे संयोग है, वह तौ निरवयव निराकार है। वसिष्ठ उवाच॥