पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९४३

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(१८२४) योगवासिष्ठ । अनेक सृष्टि कही हैं, कई जलविषे, कई अग्निाविषे, कई पृथ्वीविषे, कई वायुविषे, आकाशविषे, पत्थरविषे, पक्षीवत् उडती फिरती हैं, इत्यादिक नानाप्रकारकी सृष्टि तुमने कही हैं, अब यह प्रश्न है कि, हमारी सृष्टि किसते उत्पन्न भई है १ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! प्रश्न वही करता है जो अपूर्व होता है, जो आगे देखा अरु सुना न होवे, अरु जगत्कार जाना भी न होवे, इस जगत्की उत्पत्ति वेद पुराण कहते हैं, अरु लोकविघं भी प्रसिद्ध है, जो ब्रह्मकरिकै हुई है, अरु वस्तुते चिदाकाशरूप है, कछु उपजी नहीं, यह दोनों प्रकार मैं तेरे ताई कहे। हैं, तिनको तू जानकार भी प्रश्न करता है सो तेरा प्रश्नहीं नहीं बनता ॥ राम उवाच ॥ है मुनीश्वर यह सृष्टि कितनीक हैं, अरू. कहाँलग चली जाती हैं, अरु केते कालपर्यंत रहैगी । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जेती कछु सृष्टि तु जानता है सो सृष्टि कोङ नहीं, ब्रह्महीं ब्रह्माविषे स्थित है, अरु सृष्टि बहुत हैं, परंतु वस्तुते कछु हुई नहीं, आदि अंत मध्यते रहित है, सो ब्रह्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, अरु यह जेती कछु सृष्टि है सो आभासमात्र है, ब्रह्म जो आदि अंत मध्यते रहित है, तिसक आभास भी तैसाही है, जेता वृक्ष होता है तेतीही छाया होती है, तस ब्रह्मका आभास सृष्टि है, अरु वास्तवते पूछै तौ आभास भी कोङ नहीं, ब्रह्मही अपने आपविषे स्थित है, वही जगवरूप आपको देखता है, ब्रह्मते इतर कछु नहीं, जैसे स्वप्नविषे पर्वत नदी आयुध नाना प्रकारके व्यवहारके रूप धारिकार आत्मसत्ता स्थित होती है, सो कछु। बना नहीं, जैसे 'संकल्पनगर भासता है, तैसे यह जगत् भी जान, अपर कछु वना नहीं, आत्मसत्ता जगतरूप हो भासती है, जो जगत् किसी कारणकार उपजा होता तो सत् होता, इसका कारण कोऊ नहीं पाता, तात असत् है, न कोऊ निमित्तकारण पाता है, न समवाथिकारण पाता है ॥ हे रामजी ! जो कारणते उपजा न होवे, अरु भासै, तिसको आकाशमात्र स्वप्नपुरवत् जान, अरु जिसविषे आभास भासता है, सो अधिष्ठान सत्ता है, जैसे जेवरीविषे सर्प भासता है, सो सर्प कछु नहीं, जेवरीही सत् होती है, तैसे जगत् अधिष्ठान ब्रह्मसत्ता है, सोई सत् है,