पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९४४

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राजप्रश्नवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१८२५) शुद्ध निर्दुःख हैं, अच्युत है, विज्ञान है, सदा अपने आपविषे स्थित है, वही सत्ता जगतरूप हो भासती है, जैसे जलही तरंगरूप हो भासता है, तैसे ब्रह्मही जगरूप हो भसता है । हे रामजी ! यह जगत् ब्रह्मका हृदय है, अर्थ यह जो अपना स्वभाव हैं, ब्रह्मते इतर कछु नहीं ज्ञानीको सर्वदा ऐसेही भासता है, जैसे स्वमते जागे, तब अपना आपही. भासता है, तैसे यह जगत् अपना आप है॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जगदाभासवर्णने नाम द्विशताधिकळ्यशीतितमः सर्गः ॥ २८२ ॥ द्विशताधिकळ्यशीतितमः सर्गः २८३. राजप्रश्नवर्णनम् ।। - वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इस जगत्का कारण कोऊ नहीं, जो जगवही नहीं तौ कारण कैसे होवे, अरु कारण नहीं तौ जगह कैसे होवे, ताते सर्वं ब्रह्मही है, इसके ऊपर एक उपाख्यान हैं, सो सुन ॥ हैं। रामजी । कुशद्वीपविषे पूर्व अरु पश्चिम दिशाके मध्यविषे जो ऐलवती नगरी हैं, सो कैसी नगरी है, स्वर्णकी अरु महाउज्वलरूप है; तिसविषे बड़े स्तंभ ऊर्ध्वको गये हैं, मानौ पृथ्वी अरु आकाशको इननेही पूर्ण किया है, ऐसे वहाँ स्वर्णके स्तंभ थे, तिस नगरीका एक प्रागपति राजा है, एक कालमें आकाशते शीघ्र वेगकारै उसके गृहविषे मैं आया, इसने भलीप्रकार अयं पाद्य साथ प्रीतिकार मेरा पूजन किया, अरू सिंहासनके ऊपर बैठाया, बैठायकारे उसने मुझसों महाप्रश्न किया, जिन प्रश्नतै उपरांत को प्रश्न नहीं ॥ राजोवाच ॥ हे भगवन् । संशयरूपी तमके नाशकर्ता तुम सूर्य हौ, मुझको संशय है, सो दूर करहु, ॥ हे मुनीश्वर । जब महाप्रलय होती है, तब कार्य कारण सर्व शब्दकी कल्पना अभाव हो जाती है, तिसके पाछे महाआकाशसत्तां शेष रहती है, तिसविषे वाणीकी गम नहीं, अवाच्यपद है, तिसते बहुरि सृष्टि कैसे उत्पत्ति होती है, वहाँ उपादानकारण अरु निमित्तकारण तौ को न था, सृष्टि कैसे