पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९४८

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द्वितीयप्रश्नोत्तरवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्दै ६. (१८२९) हैं तिनको कार्य कारण प्रत्यक्ष भासते हैं; तिनके वचन भी निरर्थक, जैसे अंधकूपके दुर्दुर शब्द करते हैं, तैसे वह भी निरर्थक प्रत्यक्षप्रमाणकारि कार्यकारणके वाद करते हैं, तिनको हमारे वचन सुननेका अधिकार नहीं, अरु हमको भी तिनके वचन सुनने योग्य नहीं ॥ है। राजन् ! जिस शास्त्रके श्रवणकार अरू जिस गुरुके मिलनैकारे संपूर्ण संशय निवृत्त न होवें,तिसशास्त्र अरु गुरुका कहना भी अंधकूपते दुर्दुरवत व्यर्थ है, जो परमार्थ सत्ताते विमुख हुये हैं, तिनको यह भ्रम अपनेविष भासता है, शरीरके मृतक हुये आपको मरता जानते हैं, कि मैं शुओं हौं, बहुरि वासना अनुसार शरीर उपजता जीता है, तब मानता है,कि अब मैं उपजा हौं, बहुरे अपने पुण्य पाप कर्मका अनुभव करता है, जैसे स्वप्नविषे अपनेसाथ शरीर देखता हैं, तैसे परलोकविषे अपनेसाथ शरीर भासि आता हैं, तैसे यह शरीर भी भासि आया है; न को उसका कारण है, न पचभौतिक है, न इसका शरीर है न किसी कारणते भूत उपजे हैं, अपनी कल्पना आकाररूप होकर भासती हैं। अपर आकार कोऊ नहीं, केवल ब्रह्मसत्ता अपने आपवित्रे स्थित है; जैसा संकल्प तिसविषे दृढ होता है, तैसा पदार्थ भासि आता है ॥ हे राजन् ! तू इस जगतुको सुत् मानता है, तो सब कछु सिद्ध होता है, शरीर भी है, परलोक भी हैं, नरक स्वर्ग भी हैं, जैसा यह लोक है, तैसा परलोक है, जो यह लोक निश्चयविषे सत् है। तौ वह लोकभी सही भासैगा, जैसा कर्म करेगा, तैसा फल भोगेगा। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे प्रश्नोतरवर्णनं नाम द्विशता धिकचतुरशीतितमः सर्गः ॥ ३८४ ॥ द्विशताधिकपंचाशीतितमः सर्गः ३८५. द्वितीयप्रश्नोतरवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे राजन् । जेता कछु जगत् तुझको भासता सो सब संकल्पमात्र हैं, जैसे कोङ बालक अपनेमनविषे वृक्षकोरेचे, तिसविषे फूल