पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९४९

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योगवासिष्ठ । फल टास कल्यै सो संकल्पमात्र हैं, तैसे यह जगत् संवेदनरूपब्रह्माने कल्पा है, तिनके मनविषे फुरता है, सो संकल्परूप है, जैसे उसने संकल्प किया है तैसेही स्थित है, जैसे तिसविषे क्रम रचा हैं, जो इसप्रकार यह पदार्थ होगा, सो तैसेही स्थित भया है, देश काल पदार्थ तैसेही स्थित हैं, इसका नाम नेति है ॥ हे राजन् ! तुझने प्रश्न किया कि पुरुष अरूप हैं, अरु दूर हैं, तिसके अर्थ किसीने दिया, तिसको कैसे पहुँचता है, अरु स्वरूप अरूपका कैसे संयोग है, जो कोऊ शुद्ध संवेदन पुरुष हैं, तिनको सब पदार्थ निकट भासते हैं, अरु जो कोऊ पुरुष मनोराज्य कल्पता है, तिसविषे बड़ा देश रचै सो दूरते दूर मार्ग हैं, तौ जो उस देशके वासी हैं, तिनको देशकी अपेक्षाकार दूसरा देश दूरते दूर है, परंतु जिसका मनोराज्य है, तिसको तौ सब निकट है, अपना आपही है, तिसप्रकार जो शुद्ध संवेदनरूप हैं, तिसके अर्थ जो कोऊ ईश्वर अर्थ अथवा देवताके अर्थ देता है, तिसको निकटते निकट सब अपनेविषे भासता है, आदि नेति इसीप्रकार हुई है, जो शुद्ध संवेदनको सबअपने निकटते, निकटही भासै, काहेते कि सब संकल्प है, जैसी रचना संकल्पविषे रचती है, तैसे होती हैं, संकल्पविषे क्या नहीं होता, अरु स्तंभका प्रश्न जो तुझने किया है, काष्ठका स्वर्ण कैसे होता हैं, सुनं ॥ हे राजन् ! आदि जो संवेदनरूप ब्रह्मा है, तिसने अपने मनोराज्यविषे नेति करी है, जो तपादिककरिके इसका वर अरु शाप सिद्ध होता है, उसके कहेते, जो काष्ठका स्तंभ स्वर्ण हो गया,तौ तू, विचारकर देख कि इस कारणते काष्ठका स्वर्ण भया है, सो संकल्पमात्र है, जो संकल्पते इतर भी कछु होता तौ काष्ठका स्वर्ण न होता, अरु यह सर्व विश्व संकल्परूप है; जैसा संकल्प दृढ होता है, तैसा हो भासता है, जैसे तू अपने मनोराज्यविघे संकल्प करै हैं कि यह ऐसे रहे, अरु जो इसते अपर प्रकार करै तौ अपर हो जावै सो होता है क्यों, तैसे वर अरु शाप भी अपर प्रकार हो जाते हैं, न अपर कोऊ जगत है, न कार्य है, न कारण है, वही आत्मसत्ता ज्योंकी त्यों है, जैसे संकल्प जिसविषे फ़रता है तैसे