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योगवासिष्ठ।

इंद्र होकरि स्थित भया है, देवतारूप होकरि भी वही स्थित भया है, अरु दैत्यरूप होकरि भी वही स्थित भया है, मरण उपजनेका रूपभी वही धारता है, जैसे एक समुद्रविषे तरंगके समूह उपजते अरु मिट जाते हैं, सो जलही जलरूप है, तैसे उपजना अरु विनशना चेतनविषे होता है, सो चेतनरूप परमात्मा एकही वस्तु है॥ हे मुनीश्वर! चेतनरूपी आदर्श है, तिसविषे जगत‍्‍रूपी प्रतिबिंब होता है, अपनी रची हुई वस्तुको आपही ग्रहण करिकै अपनेविषे धारता है जैसे गर्भिणीस्त्री, अपने गर्भको धारती है, तैसे चेतनतत्त्व जगत् प्रतिबिंबको धारता है॥ हे मुनीश्वर! सर्व क्रिया उसी दैवकरि सिद्ध होती हैं, देना, लेना, बोलना, चालना, सब उसीकरि सिद्ध होता है, सूर्यादिक प्रकाशरूपी उसीकरि प्रकाशते हैं, अरु उसीकरि प्रफुल्लित होते हैं जैसे नीलकमल अरु रक्तकमल सूर्यकरि प्रफुल्लित होते हैं, तैसे आत्माकरि अंधकार अरु प्रकाश दोनों सिद्ध होते हैं॥ हे मुनीश्वर ! त्रिलोकीरूपी धूलि चेतनरूपी वायुकरि उडती है, जेते कछु जगत‍्के आरंभ हैं, तिन सर्वको चेतनरूपी दीपक प्रकाश करता है, जैसे फूलके सिंचनेकरि वल्ली प्रफुल्लित होती है, अरु फूल फलको प्रगट करती है, तैसे चेतनसत्ता सर्व पदार्थको प्रगट करती है, सबको सत्ता देकरि सिद्ध करती है॥ हे मुनीश्वर! चेतनहीकरि जडकी सिद्धता होती है, अरु चेतनहीकरि जडका अभाव होता है, जैसे प्रकाशहीकरि अंधकार सिद्ध होताहै, अरू प्रकाशहीकरि अंधकारका अभाव होता है, तैसे सर्व देह चेतनकरि सिद्ध होते हैं, अरु चेतनहीकरि देहोंका अभाव होता है, चेतनभी उसीकरि होता है, शिव भी उसीकरि होता है॥ हे मुनीश्वर! ऐसा पदार्थ कोई नहीं, जो चेतनबिना सिद्ध होवै, जो कोई पदार्थ है, सो आत्माहीकरि सिद्ध होता है॥ हे मुनीश्वर! शरीररूपी वृक्ष सुंदर है, बड़े ऊँचे टाससहित है, परंतु चेतनरूपी मंजरीबिना नहीं शोभता, जैसे सविना वृक्ष नहीं शोभता, तैसे चेतनबिना शरीर नहीं शोभता, बढना घटना आदिक जो विकार हैं, सो भी एक आत्माकरि सिद्ध होते हैं, यह जगत् सब चेतनरूप है, चेतनमात्रही अपने आपविषे स्थित है॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! जब इसप्रकार