पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९५३

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योगवासिष्ठ । उवाच ॥ हे राजन् । जेते कछु आकार तुझको भासते हैं, जिनको देखिकर तुझने प्रश्न उठाया है, सो हैं, नहीं, असह्मत्ताही अपने आपविणे स्थित हैं, जिन भूतोंकार देह बना भासता है, सो भूत भी मृगतृष्णाके जलवत हैं,जैसे जेवरीविषे सर्प भ्रममात्र है, जैसे सीपीविषे रूपा, जैसे आकाशविषे दूसरा चंद्रमा भ्रममात्र है, अत्यंत अभाव हैं, तैसे यह भूताकार ब्रह्माविषे भ्रमकार भासते हैं, अत्यंताभाव है, कछु बने नहीं, ब्रह्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, अरु तुझने पूछा था कि ज्यों स्वयंभू अपने आपते उपजतेहैं, त अब क्यों नहीं होता सो हे राजन् । कई इसके सदृश पडे उत्पन्न होते हैं, अनेक जो सृष्टि हैं, वास्तवते कछु उमजी नहीं, कबहूँ कछु नानाप्रकार भासता है, परंतु नानाप्रकार नहीं भया; जैसे स्वप्नविषे सदा तू देखता है, जो अद्वैत अपना आपही नानारूप हो भासता है, पर्वत ऊपर दौडता फिरता है, सो किसी शरीरकार दौडता है, अरु क्या रूप होता है, जैसे वह. पर्वत भी आकाशरूप है, शरीर भी आकाशरूप होता हैं, भ्रमकार पिंडाकार भासता है, तैसे यह जगत् भी आकाशरूप है, भ्रमकार पिंडाकार भासता है ॥ हे राजन् ! तू अपने स्वभावविषे स्थित होकर देख यह जगत् सब तेरा अनुभव आकाश हैं, स्वप्नका दृष्टांत भी मैं तेरे जतावनेनिमित्तू कहा है, स्वप्न भी कुछ हुआ नहीं, सदा आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, जब तिसविषे आभास संवेदन फुरती हैं, तब वही जगतरूप हो भासती है, जब आभास संकल्प मिटि जाता हैं, तब प्रलयकाल भासता है, वास्तव न कोऊ उत्पत्ति होती हैं, न प्रलय भइ है, ज्योंकी त्यों आत्मसत्ता स्थित है, जैसे एक निद्राके दो रूप होते हैं, एक स्वप्न, दूसरा सुषुप्ति, जो जाग्रविषे दोनों आकाशमात्र होती हैं, तैसे आभासकी दो संज्ञा होती हैं, एक जगत् अरु दूसरी महाप्रलय, आत्मरूपी जाग्रविषे दोनोंका अभाव हो जाता है । जो हे राजन् ! तू स्वरूपविषे जागिकरि देखु, जेती कछु कलना है, तिसको त्यागिकार देखु, सब आत्मरूप है, अपर कछु नहीं ॥ हे रामजी! इसप्रकार मैं राजाको कहकर उठि खड़ा