पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९५४

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पूर्वरामकथावर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. ( १८३५) हुआ, उसने भली प्रकार प्रीतिसंयुक्त पूजन किया, जब पूजन करचुका, तब मैं जिस कार्य लिये आया था, सो कार्य कर स्वर्गको चला गया । इति श्रीयोगवासिष्ठेनिर्वाणप्रकरणे राजप्रश्नोत्तरसमाप्तिवर्णननामद्विशताधिकषडशीतितमः सर्गः ॥ २८६ ॥ द्विशताधिकसप्ताशीतितमः सर्गः २८७, पूर्वरामकथावर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! यह जगत् सब चिदाकाशरूप हैं, अपर द्वितीय कछु बना नहीं ॥ राम उवाच । हे भगवन् ! तुम कहते हो, सब चिदाकाश है, बना कछु नहीं, यह तौ सिद्ध साध्य विद्याधर लोकपाल देवता इत्यादिक लोक भासते हैं,लोकअरु लोकपाल कछु बने क्यों नहीं ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । यह जो सिद्ध साध्य विद्याधर देवता इनते लेकर जो लोक अरु लोकपाल हैं, सो वस्तुते कछु उपजे नहीं ब्रह्मसत्ताही अपने आपविषे स्थित है, अरु यह जो प्रत्यक्ष भासते हैं, शुद्ध संकल्पकार रचे हुये हैं, परंतु वस्तुते कछु बने नहीं, भ्रमकार इनकी सत्यता भासती है,जैसे मृगतृष्णाकीनदी, जैसे जेवरीविषे सर्प जैसे सीपीविषे रूपाजैसे संकल्पनगर,तैसे आत्माविषे यह जगत् ॥ हे रामजी! जैसे स्वप्नविषे नानाप्रकारकी रचना भासती है, परंतु कछु हुआ नहीं, तैसे यह जगत् है, जो पुरुष इसको देखिकारि सत् मानता है, वह सम्यग्दर्शी नहीं, जो आत्माको देखता है, सोई सम्यग्दर्शी है । हे रामजी। यह लोक अरु लोकपाल जगवसत्ताविषे ज्योंके त्यों हैं, जैसे स्थित हैं, तैसेही हैं, अरु परमार्थते कछु उपजे नहीं, अनुभवसत्ताही संवेदनकारि दृश्यरूप हो भासती है, द्रष्टाही दृश्यरूप होभासता है, परंतु स्वरूपते इतर कछु न हुआ, जैसे आकाश अरु शून्यताविषे भेद नहीं। जैसे अग्नि अरु उष्णताविषे भेद नहीं, तैसे ब्रह्मा अरु जगविषे भेद ।