पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(१८३६) गोगवासिष्ठ । नहीं ॥ हे रामजी ! अब तू एक अपरवृत्तांत सुन,स्वप्नविषेजैसे अब हम हैं, तैसे एक आगे भी चित्तप्रतिमा हुई थी, पूर्व एक कल्पविषे तुम अरु हम हुये थे, तू मेरा शिष्य था, अरुं मैं तेरा गुरु था, एक बनविषे तैंने मुझको प्रश्न किया ॥ शिष्य उवाच ॥ हे भगवन् ! एक मुझको संशय है, सो नाश करो, जो महाप्रलयविषे नाश क्या होता है, अरु अविनाशी क्या रहता है । गुरुरुवाच ॥ हे तात ! जेता कछु शेष विशेषरूप जगत् है, सो सब नाश हो जाता है, जैसे स्वप्नका नगर सुषुप्तिविर्षे लीन हो जाता है, तैसे सब जगत् लीन होजाता है निर्विशेष ब्रह्मसत्ता शेष रहती है, अपर क्रिया कोल कर्म सब नाश हो जाते हैं, आकाश भी नाश हो जाता है, पृथ्वी आप तेज़ वायु पहाड नदियां इनतेकार जो जगत् है, क्रिया काल द्रव्यसंयुक्त सो सब नाश हो जाता है, ब्रह्मा विष्णु रुद्र इंद्र यह जो कार्य के कारण , तिनका नाम भी नहीं रहता, संवेदनशक्ति जो है, चेतनका लक्षणरूप सो भी नहीं रहती, अचेत चिन्मात्र एक चिदाकाशही शेष रहता है। शिष्य उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! जो वस्तु सत होती हैं, तिसका नाश नहीं होता अरु जो असत् होती हैं, सो आभासरूप है, यह जगत तौ विद्यमान भासता है, सो महाप्रलयविषे कहा जावेगा ॥ गुरुरुवाच ॥ हे तात ! जो सत् है, तिसका नाश कदाचित्र नहीं होता, जो असदहै। तिसका भाव नहीं सो जेता कछु जगत् तुझको भासताई, सोसव भ्रममात्र है इसविषे कोऊ वस्तु सव नहीं भासती है, परंतु स्थित नहीं रहता, जैसे मृगतृष्णाका जल स्थित नहीं, जैसे दूसरा चंद्रमी भासता है, सो भ्रममात्र हैं, जैसे आकाशविषे तरुवरे भ्रममात्र हैं, तैसे यह जगत् जो भासता है, सो भ्रममात्र है, जैसे स्वप्ननगर प्रत्यक्षभी भासता है, परंतु भ्रममात्र हैं, तैसे यह जगत् भ्रमरूप जान ॥ हे तात ! आत्मसत्ता सर्वत्र सर्वदाकाल अपने आपविषे स्थित हैं, जैसे स्वप्नविषे जाग्रतका अभाव होता है, अरु जाग्रतविषे स्वप्नका अभाव होता है, सो सृष्टि कहाँ जाती है, जैसे जाग्रतविषे स्वप्नसृष्टिका अभाव हो जाता है, तैसे महाप्रलयविषे, इसका अभाव हो जाता है ॥ शिष्य