पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९५६

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पूर्वरामकथावर्णम-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१८३७) उवाच ॥ हे भगवन् ! यह जो भासता है सो क्या है, अरु जो नहीं भासता सो क्या है, अरु इसका रूप क्या है, अरु चिदाकाशते कैसे हुआ है । गुरुरुवाच ॥ हे शिष्य | जब शुद्ध चिदाकाशविषे किंचन संवेदन फुरती है, तब जगतरूप हो भासती है, ताते इसका रूप भी चिदाकाशही है, चिदाकाशते इतर कछु नहीं, सृष्टि अरु प्रलय दोनों उसीके रूप हैं, जब संवेदन फुरती हैं, अरु जब संवेदन अफ़र होती है, तब प्रलयरूप हो भासती है, सो दोनों उसके रूप हैं, जैसे एकही वgविषे दोस्वरूप, दंतकरिकै शुक्ल लगता हैं, अरु केशकार कृष्णलगता है, तैसे आत्माविषे सर्ग अरु प्रलय दो रूप होते हैं, सो दोनों आत्मरूप हैं, जैसे एकही निद्राकी दोअवस्था होती हैं, एक स्वप्न, अरु दूसरी सुषुप्ति, अरु जागृतविषे उभय नहीं, तैसे निद्रारूप संवेदनविषे संग अरु प्रलय भासते हैं, अरु जागृत्रूप आत्माविषे दोनोंका अभाव है ॥ हे तात ! जो कछु तुझको भासता है, सो सब चिदाकाशरूप है, अपर कछु नहीं, ब्रह्मसत्ताही अपने आप विषे स्थित है, जैसे स्वप्नविषे अपना अनुभवही जगतरूप हो भासता है, तैसे आत्माविषे जगत् भासता है ॥ शिष्य उवाच ।। हे भगवन् ! जो इसीप्रकार है, जो इष्टाही दृश्यरूप हो भासता है, तो अपर जगत् त कछु न हुआ क्यों, सर्व वही है । गुरुरुवाच ॥ हे तात ! इसीप्रकार है, अपर जगत् वस्तु कछु नहीं, चिदाकाश जगतरूप हो भासता है, आत्मसत्ताही इसप्रकार भासती है, अपर कछु नहीं, काहेते जो सब उसीका किंचन है, सर्वविचे सर्वदाकाल सर्व प्रकार सृष्टि होकार क्लरती है, अह किसीविषै किसी काल किसीप्रकार कछु हुआ नहीं, आत्मसत्ताही अपने आपविजे स्थित है, जो कछु जगत् भासता है, सो वहीरूप जान, जिसको तू सर्ग कहता है, जिसको तू प्रलय कहता है, सो सब आत्मसत्ताके नाम हैं, वही सर्वविषे सर्वदाकाल सर्व प्रकार स्थित है, एकही जो परमदेव है, सोई घटपटरूप हुआ हैं, पर्वतरूप, पटरूप,जल,तृण,अग्नि, पृथ्वी, आकाश स्थावर, जंगम, असत्, नासव, शून्य, अशून्य, क्रिया, काल, मूर्ति अमूर्ति, बंध, मोक्ष इनते आदि लेकर जतेकछु शब्द अर्थ कारकै पदार्थ