पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९५७

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( १८३८) पौगवासिष्ठ । सिद्ध होते हैं, सो सर्व आत्मरूप हैं, सर्वविषे सर्वदाकाल सर्व प्रकार आत्माही है, अरु जिसविषे सर्वदाकाल सर्वप्रकार नहीं, सो भी आत्माही है, सदा ज्योंका त्योंही है, जैसे स्वमविषे सब कछु भासता है, सो सब कछु आत्मसत्ताही है, अरु दूसरा कछु बना नहीं ॥ हे तात ! तृणही कर्ता है, तृणही भोक्ता है, तृणही सर्वेश्वर है, घट कत्त है, घट भोक्ता है, घटही सर्वका ईश्वरहै, पटकर्ता है, पट भोक्ता है, पटही परम ईश्वर है, नर कर्ता हैं, नर भोक्ता है, नरही सर्वका ईश्वर है, इसी प्रकार एक एक वस्तुके नाम करिकै जो वस्तु है, सो कत्ती भोक्ता सर्व ब्रह्मरूप है, ब्रह्माते लेकर तृणपर्यंत जो कछु जगत् भासता है, सो सर्व आत्मरूप है, क्षय अरु उदय अंतर बाहर कर्त्ता भोक्ता सब ईश्वर हैं, सो विज्ञानमात्र है, कत्त भोक्ता वही है, अरु न कती है, नभोक्ता है, विधिमुख कारकै भी वही है, अरु निषेध भी वही हैं, क्रुद्ध हुष्टि करिकै सब चिदात्माही भासता है, अरु सर्व दुःखते रहित है, अरु जिनको आत्मदृष्टि नहीं प्राप्त भई, तिनको भिन्न भिन्न जगत् भासता है, सो कैसा जगत् है, सो अनुभवते इतर कछु नहीं, ऐसे जानिकार अपने स्वरूपविषे स्थित होहु ।। हे रामजी। इसप्रकार मैं पूर्व तुझको कहा था, परंतु तिसकार तू बोधको न प्राप्त भया, सो अभ्यासकी ऊनताकारकै वही संस्कार अब तुझको आनि प्राप्त भया, तिस कारणते अब तू जागा है ॥ हे रामजी! अब तू अपने स्वरूपविषे स्थित भया है, तोते कृत्यकृत्य हुआ है, अपनी राज्यलक्ष्मीको भोयु, अरु प्रजाकी पालना करु, अरु अंतरते आकाशवत् निर्लेप रहहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे पूर्वरामकथावर्णनं नाम द्विशताधिकसप्ताशीतितमः सर्गः ॥ २८७ ॥ द्विशताधिकाष्टाशीतितमः सर्गः २८८, | उत्साहवर्णनम् ।। वाल्मीकिरुवाच ॥ हे भारद्वाज ! जब वसिष्ठजी इसप्रकार रामजीको कहि रहे तब आकाशविषे जो सिद्ध देवता स्थित थे, सो बडे फूलकी