पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

उत्साहवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६ (१८३९) वर्षा करने लगे, मानौ मेघ बरफकी वर्षा करते हैं, मानौ आकाश कंपायमान हुआ है, तिसते तारे गिरते हैं, जब पुष्पकी वर्षा कर चुकेतब राजा दशरथ उठिखड़ा हुआ,अयं पाद्यकरिके पूजनकिया अरु हाथ जोडिकर कहने लगा ॥ राजा दशरथ उवाच ।। बडा कल्याण हुआ, बडा हर्ष हुआ ॥ हे सुनीश्वर । तेरे प्रसादकार इम आत्मपदको प्राप्त हुये हैं, अब कृतकृत्य हुये हैं, अब चित्तका वियोग हुआ है, तिसकार दृश्य ऊरणेका भी अभाव भया है, हम अचेत चिन्मात्र हैं, परमपदको प्राप्त भये हैं,सब संताप मिटि गये हैं, जो संसाररूपी अंधमार्ग था, तिसते थके हुये अब विश्रांतिको प्राप्त भये हैं, अब मैं पहाडकी नई अचल हुआ हौं, सब आपदाको तर गया है, जो कछु जानना था सो जान गया हौं । हे मुनीश्वर ! तुम बहुत युक्ति दृष्टांतकारकै जगाया हैं, शून्यके दृष्टांत, अरु सीपीविषे रूपा, मृगतृष्णाका जल, जेवरीविषे सर्प, आकाशविषेदूसरा चंद्रमा अरु बेडीकारकै नदी किनारे चलते भासते हैं, जलविषे तरंग, स्वर्णविषे भूषण,वायुका कुरणा,गंधर्वनगर,संकल्पपुर इनते आदिलेकार दृष्टांत कहे हैं,तिन करके हम जाना है कि, आत्मसत्ताते इतर कछु नहीं तुम्हारी कृपाते ऐसे जाना है । वाल्मीकिरुवाच ॥ जब इसप्रकार दशरथने कहा, तब रामजी उठा, इसप्रकार हाथ जोडिछार कहने लगा ॥ राम उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! तुम्हारी कृपाकर मेरा मोह नष्ट भया है,अब में परमपदको प्राप्त हुआ हौं, किसीविषे सुझको न राग है, न दोष है, परमशांतिको प्राप्त भया हौं, न अब मेरे ताई किसी करणेकार अर्थ है, न अकरणेविषे कछु अनर्थ है, मैं परम शांतपको प्राप्त हुआ हौं ॥ हे मुनीश्वर ! तेरे वचनका मैं स्मरण कारकै आश्चर्यको प्राप्त होता हौं, अरु हर्षित होता हौं, संदेह नष्ट हो गये हैं, अब मुझको अपर नहीं भासता सर्व ब्रह्मही भासता है । लेक्ष्मण उवाच ॥ हे भगवन् ! मैं सन्तोके वचन इक करतारहाथा, अरु संपूर्ण जो मेरेपुण्य थे,सोसब इकडेभयेथे, सबका फल सब फला है, उदय हुआ है, सर्व संशयरहित परमपदको प्राप्त भयो हैं तुम्हारी कृपाके जे कोङ वचन हैं, सो चंद्रमाकी किरणवतु शीतल