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(१८४०) यौगवासिष्ठ । तिसते भी अधिक हैं, तिसकरिकै मैं परमशांति पाई है, दुःख संताप सर्व नष्ट भये हैं ॥ शत्रुन्न उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! जरा अरु मृत्युका जो कोङ भय था, सो तुमने दूर किया है, अपने अमृतरूपी वचनोंका सुधापान कराया है, अब हमारे संशय सब नष्ट भये हैं, हम आत्मपदको प्राप्त भये हैं, हमारे जो कोङ चिरकालके पुण्य थे, तिनका फल आज पाया है। विश्वामित्र उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! सर्व तीर्थके स्नान कियेते ऐसा पवित्र नहीं होता, अपरकर्म करि भी ऐसा पवित्र नहीं होता, जैसे तुम्हारे वचनोंकरिके पवित्र हुये हैं, आज हमारे श्रवण पवित्र हुये हैं ॥ नारद उवाच॥ हे मुनीश्वर ! ऐसा मोक्षउपाय मैं देवतोंकेविचे श्रवण नहीं किया, न सिद्धोंके स्थानविषे सुना है, न ब्रह्माके मुखते सुना है॥ हे मुनीश्वर! तुमने पूर्ण उपदेश किया है, इसके श्रवण कियेते बहुरि संशय नहीं रहता ॥ दशरथ उवाच ॥ हे मुनीश्वर । आत्मज्ञान जैसी संपदा कोऊ नहीं, ताते तुम परम संपदा हमको दी है, जिसके पायेते बहुरि किसी पदार्थको इच्छा नहीं रही, अब तो हम अपने स्वभावविषे स्थित भये हैं, संपूर्ण कम हमको छडि गये हैं, अरु यह जो तुम्हारे वचन सुने हैं, सो हमारे बहुत जन्मके जो कोऊ, पुण्य थे, सो इकडे आनि हुये थे, तिनका यह फल अब आनि लगा है ॥ राम उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! बड़ा हर्ष हुआ कि, सर्व संपदाका अधिष्ठान है, सो प्राप्त हुआ है, अरु सर्व आपदाका अंत भया है,अरु ज्ञानते रहित अज्ञानी हैं, सो बड़े अभागी हैं, जो आत्मपदको त्यागिकार अनात्मपदार्थकी ओर धावते हैं, सो भी यत्रकार प्राप्त होते हैं, तिनते विमुख होवें, तब आत्मपद प्राप्त होवै, सो आत्मपदको पायकार मैं शांतिवान हुआ हौं, हर्षशोकते रहित हुआ हौं, अचलपद पाया है, अरु अचिंत अविनाशी हौं, सदा अपने आपविषे स्थित हौं, तुम्हारी कृपाकार आपको ऐसा जानत भया हौं ॥; लक्ष्मण उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! सहस्र सूर्य एकत्र उदय होवै, तौ भी हृदयके तमको दूर नहीं करते सो तम तुमने दूर किया है, अरु सहस्र चंद्रमा इकडे उदय होवें, तौ अंतरकी तप्तको निवृत्त नहीं कर सकते, तुमने संपूर्ण तप्त निवृत्त