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वसिष्ठेश्वरसंवादे चैतन्योन्मुखत्वविचारवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

अमृतरूपी वाणीकरि त्रिनेत्रने मुझसे कहा, तब मैं अमृतरूपी भली प्रकार वाणीकरि पूँछत भया॥ हे देव! जब सर्वगत चेतन देव व्यापकरूप स्थित है, अरु चेतनही बडे विस्तारको प्राप्त भया है, तब यह प्रथम चेतन था, अब यह चेतनताते रहित है, यह कल्पनाका सब लोकविषे प्रत्यक्ष अनुभव कैसे होता है?॥ ईश्वर उवाच॥ हे ब्रह्मवेत्ताविषे श्रेष्ठ! महाप्रश्न यह तुझने किया है, तिसका उत्तर सुन॥ हे ब्राह्मण! इस शरीरविषे दो चेतन स्थित हैं, एक चैतन्योन्मुखत्वरूप है, एक निर्विकल्प आत्मा है, जो चैतन्योन्मुखत्व दृश्यसाथ मिला हुआ है, सो जीव है, संकल्पके फुरणेकरि अन्यकी नाईं हो गया है, अरु वास्तवते अपर कछु नहीं हुआ, परंतु दृश्यसंकल्पके अनुभवको ग्रहण किया है, तिसकरि जीवरूप हुआ है, जैसे स्त्री अपने शील धर्मको त्यागिकरि दुराचारिणी होती है, तब शीलता उसकी जाती रहती है, परंतु स्त्रीका स्वरूप नहीं जाता, तैसे चैतन्योन्मुखत्व करिके अनुभवरूपी जीवरूप हो जाता है, परंतु चेतनस्वरूपका त्याग नहीं करता, जैसे पुरुष संकल्पके वशते एक क्षणविषे अपररूप हो जाता है, तैसे चित्तसत्ता फुरणे भाव करिकै अन्यरूपहुई है, जैसे जल दृढ जडता करिकै पत्थरवत हो जाता है, तैसे चेतनकला जीवरूप भई है॥ हे मुनीश्वर! आदि जो चित्तस्पंद चित्तकलाविषे हुआ है, तब शब्दके चेतनते आकाश हुआ, बहुरि स्पर्श तन्मात्राका चेतना हुआ, तब वायु प्रगट भया, इसी प्रकार पंच तन्मात्राके फुरणेकरि पंचतत्त्व हुए, बहुरि देशआदिका उपाय हुआ, तिसविषे जीव प्रतिबिंबित भया, बहुरि निश्चयवृत्ति हुई, तिसका नाम बुद्धि हुआ, बहुरि अहंवृत्ति फुरी, तिसका नाम अहंकार हुआ, बहरि संकल्प विकल्पवृत्ति फुरी, तिसका नाम मन हुआ, चिंतवना करिकै चित्त हुआ, बहुरि संसारकी भावना हुई, तब संसारका अनुभव हुआ, अभ्यासके वशते संसार भासने लगा जैसे विपर्यय भावना करिकै ब्राह्मण आपको चंडाल जाने, तैसे भावनाके विपर्ययकरि आपको जी मारने लगा है, संकल्पकी जडता करिकै चेतनरूपी जीवको ग्रहणकरि संकल्पविषे वर्तता है, अनंत संकल्पते जडता तीव्रताको

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