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योगवासिष्ठ।

प्राप्त होकरि जडभावको ग्रहणकरि देहभावको प्राप्त होता है, जैसे जल दृढ जडता करिकै बर्फरूप हो जाता है, तैसे चेतन अनंत संकल्प करिकै जड देहभावको प्राप्त होता है, तब चित्त मन मोहित हुआ जडताको आश्रय करिकै संसारविषजन्म लेता है, मोहको प्राप्त हुआ तृष्णा करिकै पीडित होता है, कामक्रोधसंयुक्त भावअभावविषे प्राप्त होता है, अपनी अनंतताको त्यागिकरि परिच्छिन्न व्यवहारविषे वर्तता है, दुःखदायक अग्निकरि तप्त हुआ शून्यभावको प्राप्त होता है, भेदभावको ग्रहण करिकै महादीन हो रहता है॥ हे मुनीश्वर! मोहरूपी जो गर्त है, तिसविषे जीवरूपी हस्ती फँसा है, भावअभावकरि सदा डोलायमान होता है, जैसे जलविषे तृण भ्रमता है, तैसे असाररूप संसारविषे विकारसंयुक्त रागद्वेषकरि तपता रहता है, शांतिको कदाचित् नहीं प्राप्त होता है, जैसे यूथते बिछुरा एक मृग कष्टवान् होता है, तैसे आवरणभाव जन्ममरणकरि कष्टवान् होता है, अपने संकल्पकरि आपही भय पाता है, जैसे बालक अपने परछाईविषे वैताल कल्पिकरि आपही भय पाता है, तैसे जीव अपने संकल्पकरि आपही भयभीत होता है, अरु संकटको पाता है, आशारूपी फाँसीकरि बांधा हुआ कष्टते कष्टको पाता है; कर्मकरिकै तपायमान हुआ अनेक जन्म पाता है, अरु भयविषे रहता है, बालक होता है, तब महादीन परवश होता है, बहुरि यौवन अवस्थाविषे कामादिकके वश हुआ स्त्रीविषे चित्त रहता है, अरु वृद्ध अवस्थाविषे चिताकरि मन होता है, दुःख कष्ट पडा पाता है, जब मृतक होता है, तब कर्मोंके वश चला जाताहै, बहुरि जन्मता है, गर्भविषे दुःख पाता है, बहुरि बालक यौवन वृद्ध अरु मृतक अवस्थाको पाता है, इसी प्रकार भटकताहै, स्वरूपते गिरा हुआ स्थिर कदाचित नहीं होता॥ हे मुनीश्वर! एक चित्तसत्ता स्पंदभाव करिकै अनेक भावको प्राप्त होतीहै, कहूँ दुःख करि रुदन करती है, कहूँ दुःख भोगती है, कहूँ स्वर्गविषे देवांगना होती है, पातालविषे नागिनी होती है, असुरविषे असुरी, राक्षसविषे राक्षसी होती है, वनकोटविषे वानरी, सिंहविषे सिंहिणी, किन्नरविषे किन्नरी