पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/११०

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विदुर और कृष्ण का वार्तालाप /111
 

राजा धृतराष्ट्र ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया, “हे केशव! आपने जो कुछ कहा वह सत्य है। स्वर्गलोक जाने का यही मार्ग है। धर्ममर्यादा यही है जो आपने बतलाई, परन्तु क्या आप जानते नहीं कि मेरे पुत्र मेरे वश में नहीं हैं। दुर्योधन मेरी आज्ञानुसार काम नही करता, न वह अपनी माता गान्धारी का कहना मानता है उस पर किसी के सदुपदेश का भी प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए हे कृष्ण! आप ही कृपा करके उसे समझाये जिससे वह इस पाप कर्म से बचे।"

तब कृष्ण ने दुर्योधन की ओर फिरकर कहना आरंभ किया। “हे दुर्योधन! ऐसे उच्च वंश में तुमने जन्म पाया है। उचित तो यह है कि तू कोई ऐसा काम न करे जिससे तुझ पर या तेरे पूर्वजो पर कलंक लगे। विद्या पाकर तुझे यह उचित नहीं कि तू अनपढ़ लोगों के समान कार्य करे। इस समय तेरी इच्छा जिस ओर है वह अधर्म और पाप का मार्ग है। जो काम तूने करना विचारा है, वह काम धर्मात्मा और भद्र पुरुष नहीं करते। देख, तेरे इस कार्य से कितने जीव नष्ट होंगे। तुझे वही करना उचित है, जिससे तेरी, तेरे सम्बन्धियों और मित्रों की भलाई हो। पाण्डुपुत्र बड़े धर्मात्मा और सदाचारी, विद्वान् और वीर हैं। तुम्हारे पिता, पितामह, गुरु और दूसरे ज्येष्ठ पुरुषों की इच्छा है कि पाण्डुपुत्रो से सन्धि कर ली जाये! इसलिए हे मित्र! तेरा कल्याण इसी में है कि तू उनसे मेल कर ले। ऐसे उच्च वंश में जन्म लेकर उचित है कि तू क्रोध से काम न करे। जो पुरुष अपने मित्रों के सटुपदेश को नहीं मानता उसका भला कभी नहीं होता और अन्त में उसे पश्चात्ताप करना पड़ता है। तेरे लिए भी उचित है कि तू अपने पूज्य पिता की आज्ञा का उल्लंघन न कर, नहीं तो याद रख तुझे अन्त में दु:ख पहुँचेगा। पाण्डवों से मित्रता रखने में तेरा प्रत्येक प्रकार से कल्याण है। देख! तूने उन्हें कितनी बार सताया, पर उन्होंने तुझ पर कभी हाथ नहीं उठाया, और कभी तुझसे बदला लेने की इच्छा नहीं की। नहीं तो तू जानता है कि वीरता और धनुर्विद्या में अकेला अर्जुन अपनी बराबरी नही रखता। तेरी सेना में कोई उसका सामना करने वाला नहीं है। राजकुमार! तू अब अपने भाईबन्धु और इष्ट मित्रों पर दया कर। तुझे अपनी प्रजा पर भी दया करनी चाहिए, नहीं तो सब इस युद्ध में नष्ट हो जाएंगे और लोग यही कहेंगे कि दुर्योधन ने खुद अपने कुल का नाश कर दिया। पाण्डुपुत्र इस पर राजी हैं कि धृतराष्ट्र महाराजाधिराज माने जायें और तुम्हें युवराज की पदवी दी जाये। पर तुझे उनका आधा राज उन्हें दे देना चाहिए। इस अवसर को तू दुर्लभ समझ और पाण्डुपुत्रों से मेल करके सुख और सुयश को प्राप्त हो।"

भीष्म, द्रोण और विदुर ने भी अनेक प्रकार से दुर्योधन को सन्धि कर लेने की सलाह दी पर दुर्योधन ने एक की न सुनी और बोला, " हे महाराज! मैंने आपके वचन सुने। आपको उचित नहीं था कि आप बिना विचारे मुझसे यों बातचीत करते। मैं नहीं समझता कि आप सब दयों मुझे इस विषय में टोपी ठहराते है और पाण्डवों की सब बानों की प्रशंसा करते हैं। वास्तव में आपके सम्मुख, विदुर, पिताजी, गुरुजी और दादाजी सबके सामने मै ही दोषी हुँ, पर मुझे अपने में कुछ दोष नहीं दिखाई देता। मैंने कोई अपराध नहीं किया। युधिष्ठिर ने अपनी इच्छा से छूतक्रीड़ा की और दाव में अपना सारा राजपाट हार गए। फिर भी मैंने शकुनि से कहकर