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150/ योगिराज श्रीकृष्ण
 


का उद्देश्य बनाना ही प्रत्येक पुरुष का कर्तव्य है। इस कर्तव्य को जिसने समझ लिया, वह सीध रास्ते पर पड़ गया। फिर उसको उचित है कि वह अपनी प्रकृति का सारा जोर इस पड़ाव के पार करने में खर्च करे और किसी दूसरे विचार को अपने रास्ते में बाधक न होने दे।

यूरोप का एक राजनीतिक महापुरुष लिखता है कि निष्फलता, हतोत्साह और निराशा तथा इसी तरह की दूसरी आपत्तियो ने एक समय मुझे इतना घबरा दिया जिससे मेरे मन में यह सदेह पैदा हो गया कि मैं गलती पर हूँ और मैंने सहज, स्वेच्छा व स्वबुद्धि ही से वह कार्य आरम्भ किया जिसके परिणामस्वरूप मै सैकड़ों जीवों के रक्तपात का अपराधी बना। अस्तु, इस विचार ने मुझे ऐसा घेरा कि मैं विक्षिप्तो की भाँति काम करने लगा। मेरा जीवन भार हो गया और मैने कई बार आत्महत्या करने की इच्छा को। राते बेचैनी मे बीतने लगीं किन्तु एक दिन प्रात काल सूर्य की रोशनी के साथ ही ज्ञान की प्रभा भी दृष्टिगोचर हुई। सोचते-सोचते मैने यह निश्चय किया कि मैने जो काम आरंभ किया है वह तो आत्मश्लाघा या स्वार्थबुद्धि का परिणाम नही है, परन्तु यह दशा जो मैंने अपने लिए मान रखी है, यह मेरी बुद्धि का ही परिणाम है। अन्यथा मुझे क्या अधिकार है कि मैं कर्तव्य-पालन में केवल हतोत्साह और निराशा के सामने आने के कारण से यह निष्कर्ष निकालूं कि मै गलती पर हूँ। अस्तु, मैंने अपनी परीक्षा लेना आरंभ की और सोचने लगा कि मैन मनुष्य-जीवन को क्या समझा है? समस्त ज्ञान-विज्ञान इसी पर निर्भर है कि मनुष्य-जीवन का उद्देश्य क्या है?

भारतवर्ष के प्राचीन धर्म ने ध्यान को ही जीवन का उद्देश्य माना है, जिसका फल यह हुआ कि हिन्दृ मात्र इतने सोये कि फिर किसी काम के योग्य ही न रहे और आर्य संतान अपने ईश्वर में लीन हो गई।

दूसरी तरफ ईसाई मत ने जिन्दगी को बोझ समझा और यह निश्चय किया कि दुनिया के सब दुःख और चिन्ताओ को संतोष तथा प्रसन्नता से सहन करना चाहिए तथा उनसे बचने का उद्योग नहीं करना चाहिए। उन्होंने इस विचार से दुनिया को दुःख-मदिर माना है। इनके नियम के अनुसार मुक्ति इसी से मिल सकती है कि हम दुनिया की सब चीजों को तुच्छ दृष्टि से देखे और उनकी कुछ परवाह न करें।

अठारहवीं सदी के प्राकृतिक दर्शन ने जीवन को सुख और आनन्द का स्थान मान लिया है। इसका परिणाम यह हुआ भिन्न-भिन्न स्वरूपों में मनुष्यों में स्वार्थबुद्धि का विचार इतना बलवान हो गया कि उसे नियमों की परवाह हो न रही। प्रत्येक पुरुष अपने ही लाभ और स्वार्थ के ध्यान में निमग्न है।

सिद्धान्त और सचाई के लिए बलिदान करने का विचार इतना कमजोर हो गया कि लोग जरा-सी तकलीफ या थोड़ी-सी निष्फलता से अपने सिद्धान्तों को पैरों में कुचल डालते हैं और अपनी इच्छा को बदलकर उस काम को छोड़ देते है जिसको उन्होंने किसी उद्देश्य के पालन के लिए आरम्भ किया था।

मैंने सोचा कि यद्यपि मुझको जिन्दगी के इस दर्शन से नफरत है और मेरा दिल उन विचारो पर आरूढ़ नहीं है, तब भी मेरी आत्मा इन्हीं ख्यालों की शिकार हो रही है।