पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१९

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सम्पादकीय /17
 


स्वरूप का समर्थन किया है जो फारसी-अरबी के कठिन शब्दों से बोझिल न हो। ऐसी कठिन उर्दू को उन्होंने मुसलमानी उर्दू की संज्ञा दी थी, जिसका लिखना यद्यपि लालाजी जैसे व्यक्ति के लिए कठिन नहीं था, किन्तु उन्होंने उस गंगा-जमनी (मिली-जुली) उर्दू में ही साहित्य लिखा जो जनसाधारण के लिए बोधगम्य थी। ध्यातव्य है कि पंजाब के आर्यसमाजी लेखकों ने उर्दू की एक ऐसी शैली विकसित कर दी थी जिसमें संस्कृत के तद्भव शब्दों का बहुतायत से प्रयोग होता है, जिससे उसका हिन्दुई चरित्र उजागर होने लगा था।

प्रस्तुत पुस्तक को लिखने से पहले लालाजी ने कृष्ण विषयक सभी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्यक् अनुशीलन किया था। महाभारत तो कृष्णचरित का प्रमुख उपादान है ही, इसके अतिरिक्त भागवत, हरिवंश, विष्णुपुराण तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण आदि में जहाँ-जहाँ कृष्ण की प्रमुखता से या प्रसगोपात्त स्वल्प चर्चा आई है, लालाजी ने इन सभी ग्रन्थों के प्रासंगिक स्थलो की समुचित पर्यालोचना की थी। उधर अंग्रेजी के कुछ ग्रन्थों से भी उन्होंने सहायता ली जिनका उल्लेख वे ग्रन्थ की प्रस्तावना में करते हैं। मथुरा क्षेत्र की भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक जानकारी के लिए उन्होंने एफ०एस० ग्राउस की 'मथुरा मेमोयर' नामक पुस्तक से सहायता ली। ग्राउस एक हिन्दी-प्रेमी आई०सी०एस० अधिकारी थे जो मथुरा तथा बुलन्दशहर के जिलाधीश रह चुके थे। उन्होंने दो बंगाली लेखकों की अंग्रेजी पुस्तकों से भी सहायता ली है, जिसकी चर्चा वे अपनी प्रस्तावना में करते हैं। सम्भवत: वे बंकिम-रचित कृष्णचरित्र को नहीं देख सके थे। प्रथम तो लालाजी बँगला नहीं जानते थे और तब तक उसका हिन्दी अनुवाद भी नहीं हुआ था। तथापि अपने विस्तृत अध्ययन, मौलिक विवेचना कौशल और सर्वोपरि कृष्ण जैसे युगपुरुष के प्रति असामान्य श्रद्धा भाव से ही लालाजी जैसा उत्कृष्ट लेखक इस श्रेष्ठ कृति की रचना कर सका। निश्चय ही कृष्ण के प्रति उनकी यह आस्था, कृष्ण के महामानव होने में उनका प्रगाढ विश्वास तथा पुराण वर्णित कृष्णचरित के प्रति उनकी अनास्था एवं अरुचि का प्रमुख कारण उनके अन्तर्मन में उभरे वे ही विचार थे जो स्वामी दयानन्द की बौद्धिक विरासत ने उन्हें दिये थे। अतः प्रकारान्तर से यही मानना होगा कि कृष्णचरित के अध्ययन और आलोचन में जो सूत्र स्वामी दयानन्द ने दिया था, उसका विस्तार करना ही लालाजी की इस कृति का लक्ष्य रहा है। कालान्तर में आर्यसमाज से जुड़े अन्य लेखकों ने भी कृष्णचरित की विवेचना और मीमांसा उसी शैली में की है जिसे लालाजी ने आदर्श बनाकर प्रस्तुत किया था। गुरुकुल कांगड़ी के भूतपूर्व आचार्य पं० चमूपति का योगेश्वर कृष्ण 2006 वि० में प्रकाशित हुआ तथा इन पंक्तियो के लेखक की कृति श्रीकृष्णचरित प्रथम बार 1958 में प्रकाशित हुई।

लालाजी ने इस कृति को आज से 95 वर्ष पूर्व 6 नवम्बर, 1900 को पूरा किया था। इस पुस्तक का कालान्तर में हिन्दी अनुवाद गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर में अंग्रेजी के अध्यापक मास्टर हरिद्वारीसिह 'बंदिल' ने किया था। मास्टर जी का विस्तृत परिचय तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु जो जानकारी मिलती है उससे पता चलता है कि वे उर्दू में काव्य रचना भी करते थे जो उनके 'बेदिल' उपनाम से प्रकट होता है। उन्होंने प्रसिद्ध रूसी लेखक निकोलस नोटोविच की उस पुस्तक का भी हिन्दी में अनुवाद किया था जिसमें ईसा मसीह की कथित भारत-यात्रा