पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/१०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
योगप्रदीप
 

कर्म करते हुए यदि तुमसे सतत भगवत्स्मरण नहीं होता तो कोई विशेष क्षति नहीं। अभी, आरम्भमें स्मरण और समर्पण तथा अन्तमें कृतज्ञतानिवेदन ही काफी है। अथवा अधिकसे अधिक, काम करते-करते जहाँ रुक जाओ, वहाँ स्मरण कर लेना। इस सम्बन्धमें तुम्हारा जो ढंग है वह कुछ कष्टकर और कठिन है―मालूम होता है, तुम मन- बुद्धिके जिस अंशको कर्ममें लगाते हो उसी अंशसे स्मरण भी करनेका प्रयत्न करते हो। मैं नहीं समझता कि यह सम्भव है। काम करते हुए जो लोग सतत स्मरण करते हैं (इस प्रकार स्मरण किया जा सकता है) वे प्रायः अपनी मनबुद्धिके पश्चाद्भागसे स्मरण करते हैं अथवा ऐसा भी होता है कि क्रमशः अभ्याससे ऐसी शक्ति प्राप्त होती है जिससे मनुष्य एक साथ दोनोंका विचार या दोनोंका बोध कर सके―एकको आगे रखे जिसके द्वारा कर्म हो, और दूसरा अन्तःस्थित रहे जो साक्षीरूपसे देखे और स्मरण करे। एक और तरीका है जो बहुत कालतक मेरा तरीका था―इसमें यह अवस्था रहती है कि कर्म अपने आप होता रहता है, उसमें अपने वैयक्तिक विचार या मानसिक क्रियाके दखल देनेकी कोई आवश्यकता नहीं होती, और अपना चैतन्य भगवान्में सुस्थिर रहता है। पर यह बात प्रयत्नसे उतनी साध्य नहीं है जितनी कि अति सरल अविराम अभीप्सा और आत्मसमर्पणेच्छासे

[ ९० ]