पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्म
 

और सद्वृत्ति तथा स्वगत सहज शुभ संकल्पके साथ आरम्भ होना चाहिये, तब बाकी सब अपने आप होगा।

इस भावके साथ किये जानेवाले कर्म भक्ति या ध्यान जैसे ही अव्यर्थ होते हैं। काम, रजस् और अहंकारके त्यागसे स्थिरता और पवित्रता आती है, तब उसमें शाश्वती शान्ति उतर सकती है; अपना संकल्प भगवत्सं- कल्पपर उत्सर्ग करनेसे, अपनी इच्छा भगवदिच्छामें निमजित करनेसे अहंभावका अन्त होता है और विश्व- चैतन्यका व्यापक भाव आ जाता है या विश्वके भी ऊपर जो कुछ है उसतक अपना भाव पहुँच जाता है; प्रकृतिसे पुरुषकी पृथक् सत्ता अनुभूत होती है और बाह्य प्रकृतिके बन्धनोंसे मोक्ष होता है; अपने अन्तःपुरुषका साक्षात्कार होता है और बाह्य देहाद्यभिमानी पुरुष केवल करणस्वरूप देख पड़ता है; यह प्रतीत होती है कि अपने सब काम विश्वशक्तिद्वारा हो रहे हैं और आत्मा या पुरुष साक्षी है, साक्षीरूपसे सब देख रहा है, पर स्वतन्त्र है; यह प्रतीति होती है कि अपने सब काम विश्व-जननी या परमा माता या भागवती शक्तिने अपने हाथमें ले लिये हैं और वही हृदयके पीछेसे नियन्त्रण करती और कार्य करती हैं। अपने

[ ९३ ]