पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/१०५

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योगप्रदीप
 

सब संकल्प और कर्म निरन्तर भगवान्को निवेदित करते रहनेसे प्रेम और भक्ति-अर्चना बढ़ती है और हृत्पुरुष आगेको आ जाता है। ऊर्ध्वस्थित शक्तिको निवेदन करनसे, हमें क्रमशः अपने ऊपर उसकी सत्ता अनुभूत हो सकती है और हम अपने अंदर उसका अवतरण, तथा उत्तरोत्तर प्रवर्द्धमान चैतन्य और ज्ञानकी ओर अपना उद्घाटन अनुभव कर सकते हैं। अन्तमें कर्म, भक्ति और ज्ञान तीनों एक स्रोत होकर चलते हैं और आत्मसिद्धि सम्भावित होती है―अर्थात् वह कार्य बनता है जिसे हमलोग प्रकृतिका दिव्यीकरण कहते हैं।

ये सब बातें अवश्य ही एकदम एक साथ नहीं होतीं; साधककी अवस्था और पात्रताके अनुसार अल्पाधिक मन्द गतिसे, अल्पाधिक पूर्णताके साथ आती हैं। भगवत्साक्षात्कारका कोई ऐसा सीधा सरल राजमार्ग नहीं है कि चले नहीं कि पहुँच गये।

यही वह गीतोक्त कर्मयोग है जिसे मैंने इस रूपमें सर्वांगीण आध्यात्मिक जीवनकी सिद्धिके लिये, संवर्द्धित किया है। इसकी प्रतिष्ठा अटकल या तर्कपर नहीं प्रत्युत स्वानुभवपर हुई है। इसमें ध्यानका बहिष्कार नहीं और

भक्तिका तो कदापि नहीं; क्योंकि भगवान्के स्वात्मार्पण

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