पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/१०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्म
 

करना, सर्वस्व भगवान्पर उत्सर्ग करना कर्मयोगका सारतत्त्व है और यह तो तत्त्वतः भक्तिकी ही एक क्रिया है। अवश्य ही इसमें उस ध्यानका बहिष्कार है जो जीवनसे भागता है अथवा उस भावाच्छादित भक्तिका भी बहिष्कार है जो अपने ही आन्तर स्वप्नमें बंद रहती और इसीको योगकी सम्पूर्ण साधना मान बैठती है। कोई चाहे तो घंटों केवल ध्यानमें अथवा आन्तर अचल अर्चन-पूजन और हर्षातिशयमें निमन्ग बैठा रह सकता है, पर पूर्ण योग इतना ही नहीं है।







[ ९५ ]