पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/१८

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हमारा लक्ष्य और कठिन है । यह योगमार्ग अन्य बहुतेरे योगमार्गाकी अपेक्षा बहुत अधिक विशाल और दुर्गम है । कोई ऐसा मनुष्य कदापि इस मार्गपर पैर न रक्ग्वे जिसका अपना यह निश्चय न हो गया हो कि यह हमारे अन्तरात्माकी पुकार है और इसपर हम अन्ततक चलनेको प्रस्तुत है ।

पहलेक योगामें आत्माके अनुभवकी ही खोज थी जो आत्मा सदा मुक्त है और परमात्मासे अविभक्त है। इसलिये उन योगोंमें उतने ही अंशमं प्रकृतिको बदलनेका यत्न किया जाता था कि जितनसे उस आत्मज्ञान और आत्मानुभवमें मानवप्रकृति बाधक न हो । कुछ थोड़े-मे ही लोग और सो भी प्रायः 'सिद्धि' प्रान करने के लिये, पूर्ण परिवर्तन अर्थात् शरीरतकको बदलनेका यत्न करते थे । पृथ्वीकी पार्थिव चेतनाको ही बदलकर उसमे नवीन प्रकृति प्रकट करनेका प्रयास उनका नहीं था।

मनुष्य जो सचेतन शरीरधारी मन ही है उसकी सम्पूर्ण चेतनाको परम चैतन्यकी परा प्रकृतिसे मिलनेक लिये ऊपर उठना होगा, और परम चैतन्यकी प्रकृतिको भी मन, प्राण और शरीरमे नीचे उतारना होगा । तभी बीचकी रुकावटें दूर होगी और परा प्रकृति सम्पूर्ण [ ७ ]