पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/२०

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हमारा लक्ष्य
 

भिमानिनी या देहाभिमानिनी सत्ता ही ईश्वर नहीं है, यद्यपि वह आती परमात्मासे ही है, वैसे ही प्रकृतिकी यह यान्त्रिकता ही माता―ईश्वरी―नहीं है। अवश्य ही इम यान्त्रिकतामें तथा इसके पीछे माताका अंश है जो विकास- क्रम साधनेके लिये यह सामग्री बनाये हुए है। पर माता स्वयं जो कुछ हैं वे कोई अविद्याकी शक्ति नहीं है, प्रत्युत भगवानकी चिच्छक्ति, भागवत ज्योति, परा प्रकृति है जिनसे हम मुक्ति और भागवत सिद्धिकी कामना करते हैं।

पुरुष-चैतन्यका अनुभव―शान्त, स्वच्छन्द, त्रिगुण कर्मोंका अनासक्त अलिप्त साक्षित्व―मुक्तिका साधन है। स्थिरता, अनासक्ति, शान्तिमय शक्ति और आत्मरतिको प्राणों में, देहमें और मन-बुद्धिमें ले आना होगा। यदि इस आत्मरतिकी इस प्रकार मन-बुद्धि, प्राण और देहमें प्रतिष्ठा हो गया तो प्राणगत शक्तियोंके उपद्रवोंका शिकार होनेका अवसर नहीं आ सकता। पर यह शान्ति, समत्व, स्थिर शक्ति और आनन्दका संस्थापन, माताकी शक्तिका, आधारमें, केवल प्रथम अवतरण है। इसके परे एक ऐसा ज्ञान है, एक ऐसी सञ्चालिका शक्ति है, एक ऐसा गति- शील आनन्द है जिसका अनुभव सामान्य प्रकृतिकी उत्तमावस्थामें, अत्यन्त सात्त्विक अवस्थामें भी, नहीं हो सकता, क्योंकि यह भागवत गुण है।

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