पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/३६

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आधारके लोक और अंग भागका नियामक है । हमारी बीमारियोंका मूल प्रायः इसीमें होता है। पुरानी और बार-बार होनेवाली बीमारियोंका कारण तो यही अवचेतना तथा इसकी अमिट-सी स्मृति और इसकी, दैहिक चेतनापर पड़े हुए संस्कारोंको बार- बार दुहरानेकी, आदत ही है। पर इस अवचेतनाको अपनी सत्ताके उन उत्कृष्ट भागोंसे, जैसे आन्तर या सूक्ष्म भौतिक चैतन्य, आन्तर प्राण या आन्तर मानससे, सर्वथा भिन्न और पृथक् जानना चाहिये। क्योंकि ये आन्तर सूक्ष्म भूत या प्राण या मानस अवचेतन या असम्बद्ध या किसी प्रकार अस्तव्यस्त नहीं हैं, यद्यपि हमारा जो बाह्य चैतन्य है उससे ये अवश्य ही छिपे हुए हैं । हमारा बाह्य चैतन्य इन भागोंसे सतत ही कुछ-न-कुछ ग्रहण करता रहता है पर उसे प्रायः यह बोध नहीं रहता कि वह चीज कहाँसे आती है जिसे वह इस प्रकार ग्रहण करता है ।

यह जड जगत् जो हम देखते हैं, इसके ऊपर एक प्राणमय लोक है (जो स्वतः सिद्ध है); और इन प्राणमय तथा पार्थिव लोकोंके ऊपर मनोमय लोक है (जो भी स्वतः सिद्ध है)। इन तीनों-मनोमय, प्राणमय और भौतिक- लोकोंको एक साथ निम्न विश्वार्द्धका त्रिविध जगत् कहते हैं । पार्थिव चैतन्यमें ये विकासक्रमसे विकसित हुए हैं, पर [२५]