पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/४१

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योगप्रदीप का बोध और उसके साथ अपना सम्बन्ध अनुभूत होने लगता है। जब यह बात होती है और जीवात्मा अपनी चिन्मय संकल्पशक्तिके द्वारा प्रकृतिकी प्रवृत्तियोको नियत और सुव्यवस्थित करने लगता है तब यह समझना चाहिये कि यह वास्तविक, आध्यात्मिक आत्मप्रभुत्व है, आंशिक और केवल मानसिक या नैतिक प्रभुत्व नहीं। 'प्रधान पुरुष' पदका प्रयोग हमारे योगमें परमात्माके उस अंशके लिये होता है जो हमारे अन्दर है, जो हमारे अन्य सब तत्त्वोंको धारण करता और जन्म-मृत्युके परे रहता है । इस प्रधान पुरुषके दो स्वरूप हैं-ऊर्ध्वमें यह जीवात्मा है जिसे हम परा आत्मविद्याके प्राप्त होनेपर अनुभव करते हैं; और नीचे यह हृत्पुरुष है जो अन्तःकरण, शरीर और प्राणोंके परे अधिष्ठित रहता है। जीवात्मा अध्यक्षरूपसे जीवनके व्यक्तीकरणके ऊपर रहता है; हृत्पुरुष जीवनके व्यक्तीकरणके पीछे रहकर उसको धारण करता है। हृत्पुरुषका स्वभाव अपने आपको ईश्वरका पुत्र, शिशु, भक्तरूपमें अनुभव करना है। यह ईश्वरका अंश है, तत्वतः ईश्वरके साथ एक है; पर व्यक्तीकरणरूप कर्मशक्तिमें, सदा ही अभेदमें भी भेद होता है। परन्तु जीवात्मा तत्त्वमें ही रहता है और परमात्माके साथ एकत्वमें विलीन हो सकता [३०] .