पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/४५

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योगप्रदीप स्वरूप व्यष्टिगत विकाससे ऊपर ही रहता है। विकासके अन्दर विकसनशील हृत्पुरुष ही उसका प्रतिनिधि है जो शेष प्रकृतिको धारण करता है। अद्वैत वेदान्तका यह सिद्धान्त है कि जीवकी कोई तात्त्विक सत्ता नहीं है, क्योंकि परब्रह्म अविभाज्य है। एक दूसरा सम्प्रदाय जीवकी वास्तविक सत्ता तो मानता है पर उस सत्ताको स्वाधीन नहीं मानता-इस सम्प्रदायका यह कहना है कि जीव तत्त्वतः एक है पर व्यक्तीकरणमें भिन्न-भिन्न है, और व्यक्तीकरण सत्य है, सनातन है, माया नहीं; इसलिये जीवको असत् नहीं कह सकते । द्वैत सम्प्रदाय जीवकी अलग कोटि ही मानते हैं अथवा ईश्वर, जीव और प्रकृति यह त्रिपुटी मानते हैं ।

जीव जब-जब जन्म ग्रहण करता है तब प्रत्येक जन्मके साथ उसके पूर्वविकास और भविष्यकी आवश्यकताके अनुसार मन प्राण शरीर विश्वप्रकृतिके उपादानोंसे निर्मित होते हैं। जब शरीर नष्ट होता है,तब प्राण प्राणमय लोकमें जाता है और वहाँ कुछ कालतक रहता है, पर उसके बाद प्राणमय कोष नष्ट होता है । अन्तमें नष्ट होनेवाला मनोमय कोष है। यह सब हो चुकनेपर अन्तरात्मा अर्थात् हृत्पुरुष हलोकको [३४]