पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/५७

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योगप्रदीप लेकर शरीरतक सर्वाङ्गमें परिपूर्ण और अखण्ड हो, जिसमें कि निरपेक्ष आत्मदान और पूर्ण समर्पण हो और शरीरमें तथा अत्यन्त जड प्रकृतिमें परमानन्द भर जाय ।

केवल ईश्वरके ही प्रभावसे प्रभावित होना, और किसीके प्रभावको स्वीकार न करना यही पवित्रता है

किसी और वृत्तिको स्वीकार या व्यक्त न करना, ईश्वर- द्वारा प्रेरित और प्रदर्शित वृत्तियोंको ही केवल स्वीकार और व्यक्त करना-यही श्रद्धालुता है।

सहृदयताका यह अर्थ है कि जो सबसे बड़ा बोध और अनुभव तुम्हें प्राप्त हुआ हो उस हदतक अपनी सब वृत्तियों और कर्मोंको पहुँचाओ। सहृदयता पुरुषके सब अंगों और वृत्तियोंको एकीभूत और समन्वित करके भागवत शक्तिके अभिमुख कर ही देती है। जो निस्सङ्कोच होकर अपने सब अङ्गोसमेत अपने आपको भगवान्के अर्पण कर देते हैं, उन्हें, भगवान् भी अपने आपको दे देते हैं। उन्हींके लिये शान्ति है, प्रकाश [४६]