पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/५८

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समर्पण और आत्मोद्घाटन है,शक्ति है, मङ्गल है, मुक्ति है, विशालता है, परम ज्ञान है, आनन्दसुधासिन्धुसमूह है। समर्पणकी केवल बात-चीत या कोरी कल्पना अथवा दुर्बल-सी इच्छा होनेसे ही कुछ नहीं होता आमूल और पूर्ण परिवर्तनकी प्राणमय उत्कण्ठा होनी चाहिये। केवल मनोवृत्ति वैसी बना लेनेसे यह काम नहीं बनता, न बहुतसे आन्तरिक अनुभव होनेसे ही बनता है, क्योंकि इन अनुभवोंसे बाह्य मनुष्य ज्यों- का-त्यों रह जाता है । इसी बहिर्भूत मनुष्यको ही तो अपने आपको खोलना, समर्पण करना और रूपान्तरित होना है। इसके कायमनोवाक्कर्म और अभ्यासकी प्रत्येक छोटी-छोटी गतिको भी समर्पित करना होता है, देखना होता है, निरुद्ध कर भागवत ज्योतिके सामने लाना होता है, भागवत शक्तिके सौंप देना पड़ता है जिसमें इसके पुराने रूप और हेतु नष्ट हो जायँ और उनके स्थानमें भागवत सत्य तथा भगवती माताकी रूपान्तरकारिणी (दिव्यानुकारिणी) चिच्छक्तिका कार्य स्थापित हो। [४७ ]