पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/५९

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योगप्रदीप
 

यदि तुम माताको समर्पण नहीं करते और केवल, माताकी ओर उद्घाटित होते हो तो ऐसे उद्घाटनमें विशेष आध्यात्मिक अर्थ नहीं है। जो लोग इस योगका साधन करते हैं उन्हें आत्मदान―आत्मार्पण करना ही होगा; क्योंकि इस प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धिशील समर्पणके बिना किसी भी दिशामें लक्ष्यका कोई सामीप्य प्राप्त करना असम्भव है। उद्घाटित रहने या खुले रहनेका मतलब माताकी शक्तिको अपने अन्दर कार्य करनेके लिये बुलाना है,और इस शक्तिके प्रति यदि तुम अपने आपको सौंप नहीं देते तो इसका यह मतलब होता है कि तुम उस शक्तिको अपने अन्दर कार्य नहीं करने देते अथवा केवल इस शर्तपर करने देते हो कि यह शक्ति तुम जैसा चाहते हो वैसा कार्य करे, अपनी उस रीतिसे न करे जो कि भागवत सत्यकी रीति है। इस तरहकी सूझ प्रायः किसी दानवी शक्तिकी अथवा मन या प्राणकी किसी प्रकारकी अहंता- ममताकी होती है जिसका हेतु इस भागवत शक्ति या भागवत प्रसादका उपयोग अपने ही कामके लिये करना होता है और जो स्वयं भागवत कार्यमें युक्त होकर रहना नहीं चाहती―यह भगवान्से जो कुछ ले सकती है, लेना चाहती है, पर अपने आपको भगवान्के समर्पण कर देना नहीं चाहती। इसके विपरीत, वास्तविक जीव जो है वह भगवदभिमुख होता है और वह अपने आपको भगवान्के

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