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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

समर्पण कर देना केवल चाहता ही नहीं बल्कि समर्पण करनेके लिये उत्कण्ठित होता है और इसीमें सुखी होता है।

इस योगमें साधक हर प्रकारकी मनोगतादर्श- संस्कृतिके परे जानेवाला समझा जाता है। सब प्रकारकी कल्पनाएँ और आदर्श मनकी चीजें हैं और ये सब केवल अर्ध-सत्य हैं; मन स्वयं भी किसी आदर्शको अपने सामने रखनेमात्रसे सन्तुष्ट रहता है, आदर्शकी कल्पना करने में ही उसे आनन्द आता है, पर इसका जीवनपर कुछ भी असर नहीं होता, जीवन जैसा था वैसा ही बना रहता है और यदि कुछ बदलता भी है तो बहुत थोड़ा और सो भी प्रायः बाह्यतः ही। आत्मतत्त्वका साधक आत्मानुसन्धान- को छोड़कर केवल आदर्शकी कल्पना करनेमें मगन नहीं होता; कल्पना करना उसका हेतु नहीं होता, जीवनके पश्चात् या इस जीवनमें भी भागवत सत्यको अनुभूत करना ही उसका लक्ष्य होता है―और इसी जीवनमें भागवत सत्यको अनुभूत करना जब लक्ष्य होता है तब तो यह आवश्यक ही है कि मन और प्राण बदल- कर दिव्य बनें और मन और प्राणका दिव्य होना मातृ- स्वरूपिणी भागवत शक्तिके कार्यमें अपने आपको समर्पित किये बिना नहीं बन सकता।

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