पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/६४

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समर्पण और आत्मोद्घाटन हूँ, इसके विपरीत जहाँ मन या प्राणकी ऐसी इच्छा होती है कि वे अपनी इच्छाको ही लिये रहना चाहते हैं, अपनी वृत्ति प्रवृत्तिको छोड़ना नहीं चाहते, वहाँ तबतक सङ्घर्ष और प्रयत्न ही चलता है जबतक कि साधकरूप यन्त्र जो सामने है तथा भागवत शक्ति जो पीछे या ऊपर है, इन दोनोंके बीचकी दीवार नहीं टूट जाती। इस विषयमें कोई नियम ऐसा नहीं बताया जा सकता जो बिना किसी भेदके साधकमात्रपर समानरूपसे घट सके । मनुष्य मनुष्यके स्वभावमें इतना अन्तर है कि किसी एक नियमसे सबका काम नहीं चल सकता। साधनाकी एक अवस्था ऐसी है कि जिसमें साधकको यह अनुभव होता है कि भागवत शक्ति मेरे पीछे रहकर काम कर रही है; अथवा वह कम-से-कम भागवत शक्तिद्वारा होनेवाले इस कार्यके फलोंको तो भागवत शक्तिद्वारा प्रदत्तरूपसे अनुभव करता ही है और इसलिये अपनी मनोवृत्तियोंसे, प्राणगत बेचैनीसे या शरीरकी जडता और अकर्मण्यतासे भागवत शक्तिके अवतरण या कार्यमें बाधक नहीं होता। श्रीभगवान्की ओर आत्मोद्घाटनका यही मतलब है । समर्पण ही इस आत्मोद्घाटनका उत्तम मार्ग परन्तु जबतक समर्पण नहीं बनता है तबतक अभीप्सा [५३ ]