पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/६५

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योगप्रदीप और अचाञ्चल्यसे भी एक हदतक कुछ काम बनता ही है । समर्पणका अर्थ है-अपने अन्दरकी प्रत्येक वस्तुको भगवान्के सौंप देना, हम जो कुछ हैं और जो कुछ हमारे पास है यह सब भगवान्पर चढ़ा देना, अपनी किसी कल्पना, वासना या आदतको लिये अड़े न रहना बल्कि अपनी वृत्तिको ऐसा बनाना कि उनके स्थानमें भागवत सत्य अपना ज्ञान, सङ्कल्प और कर्म स्थापित कर दे ।

सदा भागवत शक्तिके स्पर्शमें रहो । तुम्हारे लिये सबसे अच्छी बात यही है कि तुम केवल इतना ही करो, और भागवत शक्तिको अपना कार्य करने दो; जहाँ कहीं जरूरी होगा वहाँ वह निकृष्ट शक्तियोंको अधिकृत कर लेगी और उन्हें शुद्ध करेगी; और कभी वह तुम्हें उनसे खाली कर देगी और तुम्हारे अन्दर अपने आपको भर देगी। परन्तु यदि तुम अपने मनको ही अगुआ बनने दोगे जिसमें वही तुम्हारे लिये सोचे-विचारे और कर्तव्यका निश्चय करे तो भागवत शक्तिसे तुम्हारा सम्पर्क छूट जायगा और निकृष्ट प्राण-शक्तियाँ उच्छृङ्खल होकर अपनी ही मनमानी करने लगेंगी और सारा काम ही संकर और विकर्मको प्राप्त होगा। [५४]