पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/६८

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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

भगवद्भाव बुद्धिके द्वारा न ग्रहण किया जाय, ऐसी कोई बात नहीं है; प्राण, हृदय और शरीरके द्वारा जैसे भगव- द्भाव ग्रहण किया जा सकता है, वैसे ही बुद्धिके द्वारा भी ग्रहण किया जा सकता है। इसमें ये जितने समर्थ हैं उतनी ही बुद्धि भी है; और बुद्धिसमेत सभी अङ्गोंका जब रूपान्तर साधन करना है तब यह आवश्यक ही है कि बुद्धिको भगवद्भाव ग्रहण करनेका अभ्यास कराया जाय, अन्यथा उसका यह रूप पलटकर दिव्य कैसे बन सकता है?

बुद्धिकी जो सामान्य अप्रदीप्त गति है वही आत्मा- नुभवमें बाधक है, जैसे सामान्य असंस्कृत प्राणकी प्राकृत गति भी बाधक है अथवा जैसे शरीरकी भी तमसाच्छन्न विमूढ प्रतिरोधक चेतना भी बाधक है। बुद्धिकी जिस विपरीत गतिके क्रमसे साधकको विशेषरूपसे सावधान करना है वह एक तो यह है कि मन-बुद्धिकी कल्पनाएँ और संस्कार या तर्कोपनीत सिद्धान्त भी कभी-कभी आत्मानुभव जैसे प्रतीत होते हैं; और दूसरी यह कि प्राकृत मन-बुद्धिकी गति अशान्त होती है और वह आन्तरिक और आध्यात्मिक अनुभूतिकी सहज यथावत्ताको क्षुब्ध कर देती है तथा वास्तविक उद्बोधक ज्ञानका अवतरण होनेको अवकाश ही नहीं देती या उसका मानवबुद्धिक्षेत्रमें संस्पर्श होते ही या पूर्ण संस्पर्श होनेके पूर्व ही उसे विकृत कर देती है। इसके

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