पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/७०

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समर्पण और आत्मोद्घाटन मानसिक (बौद्धिक ) कोलाहलको भी वासनाकी प्राण- गत चेष्टाके समान ही शान्त करना होता है जिसमें स्थिरता और शान्ति पूर्णरूपसे संस्थापित हो । ज्ञानका आना होता है ऊपरसे ही । इस स्थिरतामें सामान्य बौद्धिक वृत्तियाँ सामान्य प्राणवृत्तियोंके समान बाहर ही बाहर रहती हैं, शान्त अन्तरात्माके साथ उनका कुछ भी सम्पर्क नहीं होता। ऐसी निबन्ध अवस्था इसलिये आवश्यक होती है कि विशुद्ध सत्य और विशुद्ध जीवनकर्म अज्ञानके प्रपञ्चको हटाकर स्वयं स्थापित हो या उसे पलटकर दिव्य बना दे। , अन्तरात्मा अर्थात् हृत्पुरुष सीधे भागवत सत्यसे सम्बद्ध रहता है, पर मनुष्यशरीरमें इस हृत्पुरुषको मन, प्राण और शरीर छिपाये रहते हैं। कोई योगाभ्यास करके मन और बुद्धिमें ज्ञानकिरणोंकी चमक पा सकता है, प्राण शक्तिको भी वशमें कर सकता है और प्राणोंमें सब प्रकारका अनुभव-विलास भी कर सकता है; चमत्कृतिजनक शारीरिक सिद्धियाँ भी प्राप्त कर सकता है; परन्तु पीछे छिपी हुई वास्तविक चैत्य शक्ति यदि प्रकट न हो, चैत्य प्रकृति यदि बाहरको न आवे तो सब कुछ किया-कराया कुछ भी नहीं है । इस योगमें हृत्पुरुष या चित्पुरुष वही [ ५९ ] .