पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/७२

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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

व्यक्त होती हुई अनुभव करता है, बाह्यतः अवश्य ही उसे इसका भान सदा नहीं होता, क्योंकि इस क्रमका उसे सदा ज्ञान नहीं रहता। इस प्रकार शान्तिका यह अनुभव करता है पर उसे यह पता नहीं रहता कि यह शान्ति कैसे और कहाँसे आयी। तथापि यह तो सत्य ही है कि, परा चेतनाकी जो कोई भी बात है वह ऊपरसे ही आती है, केवल आध्यात्मिक शान्ति और निश्चल नीरवता ही नहीं, बल्कि प्रकाश, शक्ति, ज्ञान, परा दृष्टि और परा चिन्ता, आनन्द ये सभी ऊपरसे ही आते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि किसी हदतक ये अन्दरसे आवें, पर ऐसा इस कारणसे होता है कि अन्तःस्थित हृत्पुरुष अन्दरसे सीधे ही ऊपर इनकी ओर उन्मुख है और इसलिये पहले ये प्रकाश, शक्ति, आनन्दादि इसी स्थानमें आते हैं और तब हृत्पुरुषसे निकलकर अथवा हृत्पुरुषके ही स्वयं बाहर- की ओर प्रकट होनेसे ये जीवके अन्य अङ्गोंमें प्रकट होते हैं। अन्दरसे इनका बाहर प्रकट होना अथवा ऊपरसे इनका नीचे उतरना, ये ही दो, योगसिद्धिके राजमार्ग हैं। बाह्य मन या बाह्य चित्तकी साधना या किसी प्रकार- की तपस्यासे इनकी कोई बात हासिल हो सकती है पर ये जो दो मुख्य मूल मार्ग हैं इनकी तुलनामें इस प्रकारकी बाह्य मन या चित्तके द्वारा होनेवाली साधना या तपस्याका फल प्रायः अनिश्चित-सा और अंशमात्र होता

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