पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/७७

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योगप्रदीप
 

और आश्रय बनता है। यह विश्वकर्म केवल उतना ही नहीं है जितना कि हमारे शरीराभिमानी आत्माओंसे सम्बन्ध रखता है बल्कि इसके परे जो कुछ है वह भी अर्थात् यह लोक और अन्य लोक भी, विश्वके पारभौतिक लोक भी और भौतिक लोक भी इसमें अन्तर्भूत हैं। यहाँ आत्मा सब भूतोंमें एक ही प्रतीत होता है; और साथ ही वह सबके ऊपर, सबके परे, व्यष्टि और समष्टिके परे भी अनुभूत होता है। सबमें जो एक है उस विश्वात्मामें प्रविष्ट होना अहङ्कारसे मुक्त होना है; यहाँ अहंकार, चेतनाके अन्दर, एक अति क्षुद्र करण-सा कुछ रहता है अथवा चेतनासे सर्वथा तिरोहित ही हो जाता है। यही अहङ्कारका निर्वाण है। सबके ऊपर, सबके परे जो आत्मा है उसमें प्रविष्ट होना विश्वचैतन्य और विश्वकर्मको भी पार कर जाना है― यह विश्वकी सत्तासे उस पूर्ण मुक्तिको प्राप्त होनेका मार्ग बन सकता है जिसे मोक्ष, लय और निर्वाण भी कहते हैं।

यहाँ यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि ऊर्ध्व की ओर उद्घाटनसे केवल शान्ति, निश्चल नीरवता और निर्वाणकी ही प्राप्ति अनिवार्य नहीं है। यहाँ साधकको यह पता तो लगता ही है कि अपने ऊपर, जैसे मस्तकके ऊपर हो,कोई महती और फिर अन्तमें अनन्त शान्ति, निश्चल नीरवता और विशालता है जो सब भौतिक और पारभौतिक स्थिति-

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