पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/७८

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समर्पण और आत्मोद्घाटन
 

में व्याप्त है, पर इसके साथ ही उसे यह भी पता लग सकता है कि यहाँ एक महती शक्ति है जिसमें सर्वशक्ति है, एक महती ज्योति है जिसमें सम्पूर्ण ज्ञान है, एक महदा- नन्द है जो परमसुखमय और परमोल्लासमय है आरम्भमें ये बातें ऐसी प्रतीत होती हैं जैसी सत्तामात्र हों, जिनमें कोई सङ्कल्प न हो, निरपेक्ष हों, कैवल्य- स्वरूप हों―इनमेंसे किसी एकमें भी प्रवेश करनेसे निर्वाण सम्भावित प्रतीत होता है। परन्तु फिर यह भी पता लग सकता है कि इस शक्ति में सब शक्तियाँ हैं, इस ज्योतिमें सब ज्योतियाँ हैं, इस आनन्दमें सब सुख और भोग हैं। और यह सब जो कुछ है, हमारे अन्दर भी आ सकता है। इनमेंसे कोई भी या सभी आ सकते हैं, केवल शान्ति ही नहीं; पर सबसे अधिक सुविधाजनक, पहले निरपेक्ष स्थिरता और शान्ति- को ले आना है, क्योंकि इससे फिर औरोंका आना अधिक सुरक्षित होता है; अन्यथा बाह्य प्रकृतिके लिये इतनी शक्ति, ज्योति, ज्ञान या आनन्दको धारण करना या बर्दाश्त करना कठिन हो सकता है। इन सब वस्तुओंका एकत्र होना ही वह चीज है जिसे हम लोग परमात्म या भागवत चैतन्य कहते हैं। हृत्पुरुष हृदयद्वारसे उद्घाटित होकर पहले हमें अपने व्यष्टिगत आत्मासे युक्त करता है और आत्माका हमारे साथ आन्तरिक सम्बन्ध जोड़ता है; यह मुख्यतः प्रेम और भक्तिका मूल है। यह जो

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